Book Title: John Stuart Mil Jivan Charit
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 56
________________ थी कि यद्यपि अर्थोत्पादनके नियम सृष्टि के नियमोंपर अवलम्बित हैं तथापि अर्थविभागके नियम ऐसे हैं कि वे मनुष्योंकी इच्छापर अवलम्बित रहते हैं। इन दो प्रकारके नियमोंमें जो महत्त्वका भेद है उसे पहलेके अर्थशास्त्र-प्रणेताओंने जितना स्पष्ट करना चाहिए था उतना नहीं किया था। हो सकता है कि उनकी समझमें ही यह अच्छी तरह न आया हो । क्योंकि उन्होंने इन दोनों नियमोंको एक दूसरेसे मिला कर गड़बड़ मचा दी है और 'अर्थशास्त्रविषयक नियम ' नामक सामान्य नाम देकर छुट्टी पाली है । इन सब बातोंका सारांश यह है कि उक्त ग्रन्थका जितना तात्त्विक भाग है वह तो मिलका है और उन तत्त्वोंकी जो व्यावहारिक योजना दिखलाई गई है वह मिसेस टेलरके मस्तकका प्रसाद है। 'स्वाधीनता ' मिलकी और उसकी स्त्रीकी संयुक्त सन्तान है। वह दोनहीकी संयुक्त कृति है । उसमें एक भी वाक्य ऐसा नहीं है जिसे दोनोंने एकत्र बैठकर कई बार सावधानीसे न पढ़ा हो, अनेक प्रकारसे जिसका विचार न किया हो और जिसके शब्दों तथा भावोंके बारीकसे भी बारीक दोष न निकाल डाले हों। इसीसे यद्यपि इस ग्रन्थका अन्तिम संशोधन नहीं हो पाया है, जैसा कि आगे कहा जायगा, तो भी रचना और भावोंकी दृष्टिसे वह उसके सारे ग्रन्थोंका शिरोमणि समझा जाता है। · स्वाधीनताकी रचनाके विषयमें इतना कहा जा सकता है कि उसमें जो विचारपरम्परा शब्दोंके द्वारा प्रथित हुई है वह सारीकी सारी मिलकी स्त्रीकी है। परन्तु ऐसा नहीं है कि उस विचारपरम्परासे मिलका कोई सम्बन्ध ही न हो। नहीं, उसी विचारपरम्पराका स्रोत मिलके हृदयमें भी बहता था। इसलिए अकसर दोनोंको एक ही साथ.

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