Book Title: John Stuart Mil Jivan Charit
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ बिक्री अच्छी हुई । इससे मालूम होता है कि उस समय लोगोंमें इस प्रकारके ग्रन्थकी चाह थी । पहली बार इसकी एक हजार प्रतियाँ छपी और वे एक ही वर्षके भीतर बिक गई । सन् १८४९ में उसकी इतनी ही प्रतियाँ और छपाई गई और उनके भी बिक जाने पर, सन् १८५२ में, १२५० प्रतियोंका तीसरा संस्करण प्रकाशित किया गया । इस ग्रन्थकी इतनी विक्री होनेका एक कारण यह भी था कि इसमें केवल अर्थशास्त्रके तत्त्वोंका ही विचार नहीं किया गया है; किन्तु यह भी बतलाया गया है कि वे तत्त्व व्यवहारमें किस तरह आ सकते हैं । यह विषय इंग्लैंड, स्काटलैंड आदि जुदे जुदे देशोंके तात्कालिक इतिहासके प्रत्यक्ष उदाहरण देकर इसमें अच्छी तरह समझाया गया है। इसके सिवा इसमें अर्थशास्त्रका बहुत ही व्यापक और व्यावहारिक दृष्टि से विवेचन किया गया है और यह सिद्ध कर दिया गया है कि अर्थशास्त्र सामाजिक शास्त्रकी ही एक आवश्यक शाखा है। इससे लोगोंका यह भ्रम दूर हो गया कि अर्थशास्त्र केवल स्वार्थियों, बनियों और निर्दय लोगोंका शास्त्र है । अतएव वे उसे महत्त्वकी दृष्टिसे देखने लगे। फुटकर लेख, शङ्का-समाधानादि । इसके बाद कुछ दिनोंतक मिलने कोई महत्त्वका ग्रन्थ नहीं लिखा। समाचारपत्रों तथा मासिकपत्रोंके लिए कभी कभी लेख लिखना और कोई किसी विषयमें शङ्कायें लिखकर भेजे तो उसका समाधान लिख भेजना-बस; इन दिनों वह इतना ही लेखनकार्य करता था। __ अध्ययन के विषयमें पूछिये तो इस समय वह इस ओर विशेष दृष्टि रखता था कि संसारमें क्या हो रहा है । सन् २८५१ में जब

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84