Book Title: John Stuart Mil Jivan Charit
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 40
________________ बनाती। क्योंकि उसे मानवीय स्वभावका बहुत अच्छा ज्ञान था। वह मनुष्यके स्वभावको तत्काल ही परख लेती थी और व्यावहारिक बातोंमें भी बहुत चतुर थी। उसका नैतिक आचरण बहुत ही अच्छा और तुला हुआ था । परोपकार-बुद्धि तो उसकी खूब ही संस्कृत थी। समाजने गतानुगतिकतासे जिन कामोंको परोपकार ठहरा दिया है, अथवा जिन्हें लोग परोपकार समझते हैं, उनका अनुसरण करके वह परोपकार नहीं करती थी। किन्तु उसका अन्तःकरण ही इतना कोमल था कि वह दूसरोंकी बुराई भलाईको अपनी ही बुराई भलाई समझती थी-अपनेमें और दूसरोंमें वह भेद ही न समझती थी । वह यह भी जानती थी कि सुख-दुःखसम्बन्धी मनोविकार जिस प्रकार मेरे प्रबल हैं, उसी प्रकार दूसरोंके भी हैं । अर्थात् सुख-दुःखका अनुभव जैसा मुझे होता है वैसा ही दूसरोंको भी होता होगा। इससे उसके अन्तःकरणमें परोपकारकी अगणित हिलोरें उठा करती थीं। उसकी उदारता अमर्यादित थी। जो उसके प्रेमको थोड़ा भी पहिचानता था, उसपर वह उसकी वर्षा करनेके लिए निरन्तर उत्सुक रहती थी । उसका हृदय वास्तविक विनयका और अतिशय ऊँचे अभिमानका सन्धि-स्थल था । जिसके साथ अन्तःकरणपूर्वक और सादेपनसे बर्ताव करना चाहिए, उसके साथ वह वैसा ही बर्ताव रखती थी। क्षुद्र और डरपोकपनकी बातसे उसे घृणा थी। चाहे कोई हो, यदि उसके आचरणमें उसे थोड़ेसे भी पाशविक अत्याचारका, अप्रामाणिकता अथवा असभ्यताका अंश मालूम होता तो उसका क्रोध भड़क उठता था । इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि जो बातें वास्तवमें बुरी होती थीं, उन्हींके विषयमें उसके ऐसे मनोभाव होते थे। जिन्हें केवल लोगोंने बुरी मान रक्खी हैं उनके विषयमें नहीं।

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