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यह उसके लिये अच्छा ही हुआ । क्योंकि अबतक उसने जितना ज्ञान प्राप्त किया था उसे परिपक्क करके उससे तादात्म्य करनेके लिए उसे इस विश्रान्तिके समयमें खूब मौका मिला। इसका फल यह हुआ कि उसके स्वभावमें तथा उसके विचारों में एक प्रकारका महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो गया। यदि उसकी लिखनेकी मशीन बराबर चलती रहती तो शायद ही यह परिवर्तन होता। .
उत्साह-शून्यता। पाठकोंको स्मरण होगा कि सन् १८२१ में जब मिलने बेन्थामके ग्रन्थोंका पहले पहल अध्ययन किया था तभी उसने निश्चय कर लिया था कि मेरे जीवनका व्रत संसारका सुधार करना होगा । इसीमें मैं अपनी उम्र व्यतीत करूँगा । इस कर्तव्य-निश्चयसे उसे एक प्रकारके सुखका अनुभव होता था और उसी सुख के सहारे वह अपने जीवनशकटको अभी तक आनन्दसे चला रहा था । परन्तु सन् १८२६ के वर्षा ऋतुमें एक दिन उसकी एकाएक कुछ विलक्षण स्थिति हो गई। स्वप्नसे एकाएक जागृत होनेपर जैसी मनुष्यकी हालत होती है, उस दिन उसकी वैसी ही हालत हो गई। उसके चित्तका उत्साह बिलकुल जाता रहा । उस समय उसने अपने मनसे आप ही आप प्रश्न किया कि “हे मन, संसारके जिस सुधारके कार्यमें तू लग रहाहै और जिसमें तुझे इतना सुख मालूम होता है, कल्पना कर, कि यदि वह पूर्णताको प्राप्त हो गई तो क्या उस पूर्णतासे तू अति सुखी हो जायगा ? " मनने किसी प्रकारकी आनाकानी और संकोच किये विना स्पष्ट उत्तर दिया कि- " नहीं।" इस उत्तरसे मिलके हाथ पैर ठंडे हो गये, काम करनेका उत्साह जाता रहा और जिस कर्तव्यनिश्चयके बलपर इतने दिन जोरोशोरसे काम चल रहा था उसका