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प्रदेशमें रहने के बावजूद भी उन्होंने अपने आपको कभी अकेला महसूस नहीं किया क्योंकि गुरुदेवका आशीर्वाद और माता-पिता के संस्कार एवं मात संस्थाका पीठवल सतत उनके साथ रहता था और इस तरह गुरुदेवश्री ने ज्ञानदान के क्षेत्र में एक मिशाल कायम की।
किसी भी संस्था को खड़ा करना बड़ी बात नहीं होती किन्तु संस्था को सक्षम बनाना, लंबे अरसे के लिए मजबूती प्रदान करना ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि थी । गुरुदेवश्रीने भी जो विश्वस्तरीय पाठशाला का ख्वाब संजोया था उसे साकार करने के लिए एक साल तक एक रूपये की सेलेरी न लेते हुए संस्था के पीछे लगाई और अन्य व्यक्तियों के लिए आदर्श प्रस्तुत किया। ऐसे निःस्वारथी माँ-बाप जिन्होंने ऐसे निःस्पृही संतान को जन्म देकर धरती पर उपकार किया ।
गुरुदेवश्री ने भी मुश्किलों के मजबूत चट्टानों को भेदते हुए 7 छात्रों से 27 छात्रों को सम्मिलित किया । पश्चात् किसी कारणवशात् दिनांक 25-4-1996 वैशाख कृष्ण एकादशी के दिन 'श्री वर्धमान तत्त्व प्रचारक विद्यालय' नामक संस्थाको शुभ नाकोडा तीर्थ में स्थानांतरित किया गया और नवीन नामकरण किया गया 'श्री नाकोडा पार्श्वनाथ जैन ज्ञानमंदिर' ।
छात्रों की संख्या 100 से ज्यादा बढ़ने लगी। नूतन भवनकी आवश्यकता हुई। अध्यक्ष महोदय श्री पारसमलजी भंसाली आदि समस्त ट्रस्ट मण्डल ने भवन निर्माण हेतु सहर्ष हामी भर दी और देखते ही 4 करोड रूपयों के सद्व्यय से अत्याधुनिकता सुविधायुक्त भवनने परिपूर्णता प्राप्त की । उद्घाटन प.पू. आचार्यभगवंत कलापूर्णसूरीश्वरजी महाराजा की सान्निध्यता में नाकोडा तीर्थ ट्रस्ट के वरद् हस्तों से 9-2-2002 के शुभ दिन किया गया और नाम हुआ 'श्री नाकोडा पार्श्वनाथ जैन ज्ञानशाला', तब से लेकर आज तक यह संस्था उत्तरोत्तर वृद्धिगत बनती हुई सफलताके नये आयाम के पायदान को चूम रही है। गुरुदेवश्रीके हस्तगत तैयार सेंकडों अध्यापक, सेंकडों विधिकारक एवं जिनशासनरूपी बगिया में महकते हुए 45-45 साधु भगवंत ।
जिनकी अजोड प्रतिभा ने जम्मू कश्मीर, तेजपुर, गुवहाटी (असम), यवतमाल, दिल्ली, कोलकाता आदि महानगरों के साथ-साथ विदेशों में भी दुबई नैरोबी, युगान्डा, मोम्बासा, दारेसलाम, थीका आदि नगरों में सम्यग्दर्शन के साथ-साथ सम्यग्ज्ञान की गरिमा बढ़ाई है । जिन्होंने 989 से अधिक साधु-साध्वीजी भगवंतो को और 1342 से अधिक
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જિન શાસનનાં
ज्ञानार्थियों को सम्यग्ज्ञान का अनमोल रत्न भेंट धरा है । जिनकी पावन प्रेरणासे 65 से अधिक पुण्यात्माएं संयम जीवन अंगीकार कर आत्मसाधना में लीन हुए है।
पूज्य गुरुदेवश्री की कड़ी महेनत और निष्ठासंपन्न कार्यों को देखकर निःसंकोच कह सकते है जिस किसी संस्था का सुकानी निष्पक्ष और निःस्वार्थ बनकर संस्था को अपना ही एक अभिन्न अंग माने तो जैन समाज की उन्नति और प्रगति दशो दिशाओं के अंत तक फैल सकती है, मात्र आवश्यकता है ऐसे निःस्वार्थ एवं निर्विवाद से भरे व्यक्तित्व एवं कृतित्व की... ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी बनने के द्वारा गुरुदेवश्री ने इतिहास के अमर पन्नों पर शौर्य से भरे स्याही से लिखा जाने वाला एक आदर्शभूत उदाहरण प्रेषित किया है। आज यह ज्ञानशाला की सिद्धि और प्रसिद्धि उन्नति की ऊँची डगरियों सहजता से सर कर रही है उनका निःशेष श्रेय और अशेष यश पूज्य गुरुदेवश्री को ही मिलता है । अन्ततः परमकृपालु दीनदयालु परमात्मासे एक ही अभ्यर्थना है कि पूज्य गुरुदेव के हृदय में जिनशासन के प्रति अविहड राग का प्रवाह हो रहा है वह तूफानका रूप धारण कर पाश्चात्य विकृत को बहा ले जाने में कारगर सिद्ध होवे और उनका जो ज्ञान के प्रति आत्मबल है वह अनेक ज्ञानशाला की जननी बने, जो सभी के दिलों से अंधकार को दूर कर ज्ञान की ज्योति जाज्वल्यमान करने का अभूतपूर्व कार्य करे।
पूज्य गुरुदेव की ज्ञानदान की यह निर्मल ज्ञानगंगा अनेकों कण्ठों की तृषा को शांत करती हुई, अनेकों को अनंतर और परंपर मोक्षमार्ग पर प्रेषित करती हुई, युवा हृदयों में हृदयस्थ होवे और इस कार्य को अंजाम देने के लिए उनका देह निरामय एवं निरोगी बने, आयुष्य सतत् बीतते पलों की तरह वर्धमान तथा वर्क वर्डन जीवन के क्षणों की भाँति हीयमान बने, साथ ही साथ इस ज्ञानशाला की कार्यसेवा से सर्वजन लाभान्वित होवे ।
गुरु चरणोपासक
श्री जैन ज्ञानशाला नाकोडा तीर्थ श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ जैन पाठशाला - मालवाडा श्री जिनेश्वर विद्यापीठ माण्डवला के अध्यापक एवं छात्रगण
શ્રી નંદુભાઈ પી. વોરા
સૌરાષ્ટ્રમાં ભાવનગર જિલ્લાના ગારિયાધારના વતની શ્રી નંદુભાઈ પરમાણંદ વોરાનો જન્મ ૧૯૩૧ની ડિસેમ્બરની ૨૨મી તારીખે થયો. યશોવિજયજી જૈન ગુરુકુળ પાલિતાણામાં
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