Book Title: Jinshasan na Zalhlta Nakshatro Part 02
Author(s): Nandlal B Devluk
Publisher: Arihant Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 565
________________ अजहणतां नक्षत्रो के उत्कर्ष के लिए उन्नत कार्यों के द्वारा प्रगतिशील बनकर अपने सत्कार्यों की सौरभ से मानवता को महका दिया करते हैं । ऐसे ही विराट व्यक्तित्व के धनी, उच्चतम कोटि के ज्ञानोपासक, ज्ञानदान में कर्णधार सम श्री नरेन्द्रभाई कोरडीआ । जिन्होंने बचपन से ही समाज एवं शासन विडम्बना को स्व में प्ररूपित कर कोन्वेन्ट कल्चर के विषैले वातावरण में भी मर्दानगी से जीते हुए सम्यग्ज्ञान के अमृत को देश विदेश तक पहुंचाया है... ऐसे जांबाज और जवांमर्द शासन सुभट श्री नरेन्द्रभाई कोरडी आजी के गुण वैभव को सांगोपांग निहारकर अनुमोदना का अनुपम कार्य करें। गौरवशाली गरवी गुजरात की गरिमापूर्ण भूमि ने एक ओर जहाँ समाज, शासन और राष्ट्रको दानेश्वरी, तपस्वी, साधक, प्रभुभक्त, समाजसेवी, राष्ट्रप्रेमीयों की अनमोल भेंट घरी है तो दूसरी ओर यह धरा संत-महंतो की भी धारिणी जननी गर्व से गौरवान्वित गुजरात की गोद में बसा हुआ एवं अनेक इतिहासों से सुराख वह कच्छ प्रदेश और कच्छ की कामणगारी भूमि में सौन्दर्य की अभिवृद्धि कर रही वह धर्मनगरी 'फतेहगढ' और उस नगरी में धर्ममय जीवन यापन कर रहे धर्मप्रेमी श्रावकवर्य श्री डायालालभाई और उनकी सुश्राविका श्रीमति चंपाबेन की रत्नकुक्षी में से वि.सं. 2022 पोष वद 11 दिनांक के दिन एक पुत्ररत्न का उद्भव हुआ और शुभ जैसे गुजराती पंक्ति 'पुत्रना लक्षण पारणामां' को चरितार्थ करने वाला बनेगा, यह जानकर नामकरण किया गया नरेन्द्र.... जो नरेन्द्र की इन्द्रता हांसिल करेगा। 17-1-1966 बढ़ती उम्र के साथ कदम-कदम पर माता-पिता से प्राप्त संस्कारों के दर्शन होने लगे । इच्छा न होते हुए भी माता-पिता के प्रति हृदय में रहे हुए समर्पण भाव के कारण मात्र 12 वर्ष की अल्पायु में ही महेसाणा स्थित सुप्रसिद्ध श्री यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला' में धार्मिक अध्ययन करना प्रारंभ किया । मानो अंदर में छिपी हुई अनोखी प्रतिभा को निखारने के लिए सृष्टि ने माता पिता का रूप धारण न किया हो..? जब उन्होंने अध्ययन प्रारंभ किया तो मन में कोई ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं था कि मुझे बड़ा होकर कोई इस प्रकार का कार्यभार संभालना होगा,' लेकिन भाग्य की लकीरों को परिवर्तित करने का सामर्थ्य किसमें था ? जैसे-जैसे जैनधर्म के धार्मिक तत्त्वज्ञान का पीयूषपान करते गये वैसे-वैसे उनमें जिनशासन के प्रति अविहड राग दूज के चन्द्रमा की भांति बढ़ने लगा । युवावस्था में तो ह्रदय में छुपी शासन सेवा की वीणा मधुरतम साज छेड़ने 148 Jain Education International ૧૧૮૧ लगी। किसी भी क्षेत्र में हो रही, जिनाज्ञा की उपेक्षा देखकर दिल काँपने लगा । इसके लिए ठोस मजबूत अभ्यास की आवश्यकता थी, तथा उक्त कल्पना को मूर्त स्वरूप प्राप्त होने में अभी कुछ वक्त था। 5 वर्ष अध्ययन कर गुजरात स्थित वढ़वाण नगर की पाठशाला में अध्यापन हेतु अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए । मात्र 17 वर्ष की उम्र में प्रज्वलित किया गया ज्ञान दीपक वृद्धिगत होते हुए विराट ज्ञानयज्ञ का स्वरूप धरे अपना अस्तित्व कायम किये हुए है । वढ़वाण नगर में अपनी ओजस्वी प्रभावदार शैली से सभी का दिल जीत लिया तथा सुचारु रूप से पाठशाला चलाई पश्चात् कारणवश मातृसंस्था श्री यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला में पंडितवर्य श्री वसंतभाई साहेब के अधीनस्थ अध्यापक के रूप में निर्वाचित किए गए। जहाँ भक्ति, शक्ति तथा अनुभूति के त्रिवेणी संगम समान प्रकाण्ड विद्वान पण्डित प्रज्ञाचक्षु पूज्यपाद प्रगुरुदेव श्रीमान् पुखराजजी साहेब का शिष्यत्व प्राप्त हुआ। अपार गुरुप्रेम, अप्रतिम समर्पण, अकल् शासनप्रेम तथा एकलक्षी पुरुषार्थ विगेरे गुणों को निहारकर निहाल कर देने वाले पण्डित मूर्धन्य दादा गुरुदेवश्री उन पर सदैव वात्सल्य की अमीवर्षा करते रहते 'सफलतम व्यक्तित्व के पीछे अवश्य ही समर्थवान् व्यक्ति का अदृश्य सवल सहारा छुपा रहता है'। सफलता के पायदानों में अग्रसर होते हुए पूज्य गुरुदेव को प.पू. दादा गुरुदेव की अचिन्त्य अनुग्रह प्राप्ति हुई । अद्भुत प्रतिभादर्शनसे महेसाणा पाठशाला के तमाम छात्रगण उनते ही प्रभावित हुए। समय संयोगवसात् उसी संयमसम्राट तपोमूर्ति .प.पू. आ. भ. श्री मंगलप्रभसूरि म.सा. द्वारा प्रारंभित श्री वर्धमान तत्त्वप्रचारक जैन विद्यालय तखतगढ़ (राज.) की पाठशाला किसी कारणवशात् 45 वर्षों तक निरंतर चलनेके बाद किंचित् समयसे क्रियान्वित नहीं थी । आचार्यश्रीके विद्वान प्रशिष्यरत्न पूज्य मुनिप्रवर श्री रैवतविजयजी म.सा. ने पुनः कार्यशील करने हेतु अथाह परिश्रम करते हुए मानो प्रकृतिके किसी संकेत से तखतगढ़ की इस पाठशाला का नेत्व करने के लिए गुरुदेवश्री को पत्र लिखा । पत्र प्राप्ति के साथ उनका दिल खुशी से झुम उठा । मात्र 7 छात्रों से प्रारंभित हुई थी यह संस्था । जिसके उत्थान के लिए गुरुदेवश्री ने कोई कसर नहीं छोड़ी अपने परिवारको भी भूलकर मात्र और मात्र ज्ञानशाला की बुलंद पर ही नजरों को जमाये रखा। अजनबी लोगों के बीच इस अनजान For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620