Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 12
________________ आराध्य देव ही श्री कृष्ण हैं। जिनसेन का प्रधान उद्देश्य है-धर्म की भाव-भूमि पर भारतीय मनीषा का विस्तृत अध्ययन तो सूर का मानवीय धरातल पर श्री कृष्ण की जीवन लीलाओं को उद्घाटित करना। जिनसेनाचार्य का धर्म-दर्शन तथा सूर का भाव-बोध दोनों ही संसार के कल्याणार्थ जिनदीक्षा तथा नर से नारायण की संकल्पना करते हैं। दोनों के मार्ग भिन्न हैं परन्तु लक्ष्य प्रायः समान। दोनों अपने काल और समाज की विडम्बनाओं को आलोकित करते हुए इस युग को एक नवीन दिशा देना चाहते हैं। अतः इन दोनों महान् ग्रन्थों के विषय के अनुशीलन की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट हुआ एवं इस शोध प्रबन्ध की आधारशिला रखी। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध जिनसेनाचार्य कृत हरिवंशपुराण एवं सूरसागर में श्री कृष्ण (तुलनात्मक अध्ययन) को सात परिच्छेदों में विभक्त किया गया है। प्रथम परिच्छेद में हरिवंशपुराण और सूरसागर के तुलनात्मक अध्ययन से पूर्व कृष्ण-काव्य-परम्परा पर विस्तार पूर्वक दृष्टिपात किया गया है। इस प्रकरण में जैन परम्परा में आगम साहित्य से तथा वैष्णव परम्परा में वेदों से लगाकर अद्यावधि काल तक कृष्ण-काव्य-परम्परा को व्यापक रूप से विश्लेषित किया गया है। द्वितीय परिच्छेद में हरिवंशपुराण के रचयिता जिनसेनाचार्य तथा सूरसागर के प्रणेता सूरदास के व्यक्तित्व व कृतित्व को निरूपित किया गया है। कृति के तृतीय अध्याय का विशेष महत्त्व है, जिसमें दोनों ग्रन्थों के विषय कृष्ण चरित्र का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। हरिवंश पुराण के कृष्ण कथात्मक भव्य प्रसंग अजैन पाठकों में जिज्ञासा उत्पन्न कर उन्हें नवीन चिन्तन व शोध के लिए प्रेरित करते हैं। महत्त्व की दृष्टि से यह अध्याय प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का हृदय है। शोध प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में दोनों ग्रन्थों के आधार पर दोनों ही कवि-रत्नों की दार्शनिक विचारधारा का विस्तार पूर्वक अनुशीलन किया गया है। पाँचवा अध्याय काव्य सौष्ठव से सम्बन्धित है। इसमें दोनों ग्रन्थों की भाषा, शैली, छन्द व अलंकार के आधार पर कला पक्ष की समीक्षा की गई है। शोध प्रबन्ध का छठा अध्याय हरिवंशपुराण की नवीन उद्भावनाओं पर आधारित है, जिसमें जैन परम्परा के आधार पर कृष्ण चरित्र को अलग दृष्टिकोण से देखा गया है। प्रबन्ध के अन्तिम अध्याय में दोनों आलोच्य कृतियों का परवर्ती साहित्य पर प्रभाव का सविस्तार विश्लेषण किया गया है। जैन परम्परा में हरिवंशपुराण उपजीव्य कृति रही है। शताब्दियों से यह कृति कृष्ण चरित्र के सम्बन्ध में आज भी जैन साहित्य में मूलाधार रूप में स्वीकार की जाती है। वस्तुतः देखा जाए तो विभिन्न युगों में, कालों में एक नहीं अनेक कृष्ण हुए हैं जिनके चरित्र व व्यक्तित्व का कालान्तर में एक ही कृष्ण में समन्वय हुआ दृष्टिगोचर होता है। इसके अलावा कृष्ण लीला के आख्यान आध्यात्मिक व प्रतीकात्मकता को सविशेष उजागर करते हैं। ऐतिहासिकता को लेकर यद्यपि इस पर स्वतंत्र शोध का द्वार खुला है

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