Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
३८३ १. केवल उपादान कारणले ही कार्य होता है यह मिथ्या है, क्योंकि इसके समर्थनमें शास्त्रीय प्रमाणोंका अभाव है।
२. फार्यवे समय केयल उपस्थितिमात्रसे कोई निमित्त कारण हो सकता है यह मिथ्या है, क्योंकि इसके समर्थनमैं शास्त्रीय प्रमाणोंका अभाव है।
३. कार्यको उत्पत्ति सामग्रीसे ही अर्थात् उपादान और निमित्त कारणस ही होती है, यह समीचीन है, पयोंकि शास्त्र इसका समर्थन करते हैं।
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मूलशंका ६ उपादनकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्त कारण सहायक है या नहीं ?
प्रतिशंका २ का समाधान सगाधान-इस शंका उत्तर में यह बतलाया गया था कि जब उपादान कार्यरूपसे परिणत होता है तब उसके अनुकूल विवक्षित दन्यकी पर्याय निमित्त होती है। इसकी पुष्टि में श्लोकवातिकका पुष्ट प्रमाण उपस्थित किया गया था, जिसमें बतलाया गया था कि 'निश्चयनयसे देखा जाए तो प्रत्येक कार्यको उत्पत्ति विरसा होती है और व्यवहार नयसे विचार करने पर उत्पादादिक सहेतुक प्रतीत होते हैं।'
किन्तु इस आगम प्रमाणको ध्यानमें न रख कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि कार्यकी उत्पत्ति निमित्तसे होती है । उपादन जो कार्यका मूल हेतु ( मुख्य हेतु-निश्चय हेतु ) है उसको गोण कर दिया गया है।
भागममें प्रमाण दृष्टिसे विचार करते हुए सर्वत्र कार्यको उत्पत्ति उभय निमित्तसे बतलाई गई है। आगममें ऐसा एक भी प्रमाण उपलब्ध नहीं होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि उपादान ( निश्चय ) हेतुके अभाव में केवल निमित्त के बलसे कार्यको उत्पत्ति हो जाती है। पता नहीं, जव जैसे निमित मिलते है तब वैसा कार्य होता है, ऐसे कथन में निमित्तकी प्रधानतासे कार्यको उत्पत्ति मानने पर उपादानका क्या अर्थ किया जाता है। कार्य उपत्तिमे केवल इतना मान लेना ही पर्याप्त नहीं है कि गेहुँसे ही गहुँके अंकुर आदिको उत्पत्ति होती है । प्रश्न यह है कि अपनी विवक्षित उपादानकी भूमिका को प्राप्त हुए बिना कै.वल निमित्तके वलसे ही कोई गहं अंकुरादिपस परिणत हो जाता है या जब गेहूं अपनी विवक्षित उपादानको भूमिकाको प्राप्त होता है तभी वह गेहुँके अंकुरादिरूपसे परिणत होता है । आचार्योने तो यह स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया
जब कोई भी द्रव्य अपने विवक्षित कार्यके सन्मख होता है तभी अनकल अन्य द्रव्यों को पर्याय उसकी उत्पत्ति निमित्तमात्र होती है। निष्क्रिय द्रव्योंमें क्रिया के बिना, और सक्रिय द्रव्यों में क्रियाके माध्यम बिना जो दव्य अपनी पर्यायां द्वारा निमित होती है वहां तो इस सथ्यको स्वीकार हो किया गया है, किन्तु जो द्रव्य अपनी पर्यायों द्वारा क्रिमाके माध्यमसे निमित्त होती है वहाँ भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है। श्री राजवासिकजीमें कहा है---
यथा मृदः स्वयमन्तर्घटनधनपरिणामाभिमुख्ये दण्ड-चक्र-पौरुषेयप्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति ।
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