Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
३८१ सम्यक्त्वस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किल मिथ्यात्वम्; तत्तु स्वयं कमैत्र । तदुदयादेव ज्ञानस्य मिथ्यादृष्टित्वम् । ज्ञानस्य मोनहतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकमज्ञानत्वम्, सत्तु स्वयं कमैंव । तदुदयादेव ज्ञानस्याज्ञानस्वम् । स्थारिग्रस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकः किल कषायः, तत्तु स्वयं कर्मव । तदुदयादेव ज्ञानस्याचारित्रत्वम् । अतः स्वयं मोशांतिधायिभावपाका विनिमय
-समयसार टीका पृ० २४६ इसी प्रकार समयसारको बन्ध अधिकारको गाथा २७८-२७१ भी इस विषय में मनन करने योग्य है
जह फलिहमणी सुद्धो ण सग्रं परिणमद रायमाईहिं । रंगिजदि अण्णोहिं दु सो रसादीहि दबेहि ॥२७८।। एवं गाणी सुद्धी ण सयं परिणमह रायमाईहिं ।
राइदि अगणेहिं तु सो रागादीहिं दोसेहिं ॥२७९।। अर्थात-जैसे स्फटिक मणि शुद्ध होनेसे रागादिकरूपसे ( ललाई आदि हासे ) अपने आप परिणमता नहीं है, परन्तु अन्य रक्तादि द्रव्योंसे वह रक्त ( लाल ) आदि किया जाता है। इसी प्रकार ज्ञानी अर्थात् आत्मा शुद्ध होनेसे रागादिरूप अपने आप परिणमता नहीं है, परन्तु अन्य रागादि दोषोंसे रह रागी नादि किया जाता है ॥२७८-२७६।।
मदि अभ्युपगम सिद्धान्तसे श्री पं० फूलचन्द्रजीकी बातको मान लिया जाय कि कार्य केबल उपादानसे ही होता है और निमित्त केवल उपस्थित ही रहता है तब भी विचारणीय यह हो जाता है कि वह निमित्त कैसे बन गया। उपस्थित तो उस समय उसी तरह अन्य पदार्थ भी है और फिर यही निगित्त है और वे पदार्थ निमित्त नहीं है इस में क्या नियामक है।
१. श्री पं० फूलचन्द्रजी कुछ भी कहें, किन्तु उनको उसके समर्थन में प्रमाण तो उपस्थित करना ही होगा। यदि उनकी ऐसी ही मान्यता है कि निमित कारण केवल उपस्थित ही रहता है और उपादानको उपादेयल्प होने में या शक्तिको व्यक्तिरूप होने में कुछ व्यापार नहीं करता, ऐसी स्थितिमें उनकी मान्यता एक विवादस्य बात हो जाती है। और इसके समर्थन में प्रमाण उपस्थित करना ही चाहियं ।
२. दूसरी बात यह है कि एसो परिस्थितिमें अथान्त उपादान और निमित्तकी परम्पराओंको परस्परम असम्बन्धित मानने पर बन्धादि तस्त्रोंको व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी। आचार्य श्री अमूलचन्द्र सुरिने भी ऐसा ही स्वीकार किया हैतथान्तरल्या ज्ञानको भावी जीवो जीवस्य विकारहेनुरजीवः ।
-समयसार गा० १३ स्वयमेकस्य पुपय पापानव-संबर-निर्जरा-बन्ध-मोक्षानुपप से।
-समयसार या० १३ अपति भीतरी दृष्टिसे देखा जाये तो ज्ञायक भाव जीव तत्व है, जीवके यिकारका हेतु मजीव पुद्गल है ।
क्योंकि अकेले जीव तत्त्वक पुण्य-पापादि, आस्रवरूपता, संवरपना, निर्जरा और बन्ध व मोक्ष नहीं हो सकते।
३. तीसरी बात यह है कि असंख्यातप्रदेशो जीवमें शरीर परिमाणके छोटे बड़े होनेसे आकारमें छोटा