Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ शंका ६ और उसका समाधान ३७९ उसकी शक्ति व्यक्तिरूपमें नहीं आ सकती, जिसके द्वारा शक्ति व्यक्तिरूपमें आती है या जिसके बिना शक्ति व्यक्तिरूपमें नहीं आ सकती वहो बहिरंग कारण या निमित्त कारण है या वहो बलाधान निमित्त है। यह ठीक है कि लोहा हो धड़ी के पुर्जीकी शक्ल धारण करता है। यह भी ठीक है कि लकड़ी या लोहा ही विविध प्रकारके फर्नीचरके रूप में परिणत होते हैं । यह भी ठीक है कि मेटोरियलसे ही मकानका निर्माण होता है । यह भी ठीक है कि विविध प्रकारके रसायनिक पदार्थों में ही विभिन्न प्रकारके अणु वम आदि छनते है, किन्तु ये बस्तुएं जिन मनुष्यों या कलाकारोंके द्वारा विभिन्न रूपको धारण करती है, यदि वे न होवें तो वैसा नहीं हो सकता, मनुष्य या कलाकार हो उनको उन उन रूपों में लाने में सहायक होते है यही उनका बलाधान निमित्तत्व है । कलाकारका अर्थ हो यह है कि वह उसको सुन्दर रूप देवे । यह कार्य मनुष्यसे और केवल मनुष्यसे ही सम्भव है। जहाँ तवा मेटोरियलको बात है वह तो सुन्दर और भद्दी दोनों ही प्रकार की वस्तुओं में समानरूपसे रहता है। घड़ियों के मूल्योंमें तरल मला लोहे की बात नहीं है, किन्तु मुख्यता निर्माता कलाकारकी है। प्राचीन नाटय साहित्यकार भरतमुनिने अपने नाट्यशास्त्र में रसका लक्षण करते हुए लिखा है किविभावानुभावव्यभिचारिसंयोग्गद् रसनिष्पत्तिः । इसरो स्पष्ट है कि मानव हृदयमै विभिन्न प्रकारके रसोंकी उत्पत्ति ही बहिरंग साधनों की देन है। यदि कभी सिनेमा देखनेवालेसे पूछा जाय कि खेल कैसा था ता वह जो उत्तर देगा वह विचारणीय है। इसी प्रकार आत्मीय जनकी मृत कामका देखना, बाजारोंम घूमते हा सुन्दर सुन्दर पदार्थों को देखना आदि ध्यावहारिक वाहनपर गौर विचार असा है। मानमार्न जो कुछ भी सुनने या देखने में आता है वह व्यर्थ है या वही देखनेवालेके हृदयों को प्रफुल्लित करने में सहायक होता है? आत्मीय जनको मत कायाको देखना भ्यर्थ है और जो शोक हुआ है या शोकके उत्पन्न करने में बह सहायक है। यही बात बाजीह चीजोंके सम्बन्धम चिन्तनीय है। जैन तत्त्वज्ञानका विद्यार्थी यदि ज्ञान और ज्ञेयके रूप पर तथा विषय ओर कषायके रूप पर विचार करेगा तब उसको -मालम होगा कि यह पर पदार्थ ही केवल को ज्ञेय न रह कर विषय बन जाता है और आत्मामें कषाय उत्पन्न करा देता है, ऐसी स्थिति में भी आश्चर्य है कि हमारे आध्यात्मिक महापुरुषों का ध्यान इसकी तरफ नहीं जा रहा है। इस विषय में महर्षि समन्तभद्र, अकलंक ओर विद्यानन्दकी मान्यताएं मनन करने योग्य है दोषावरणयोहामिनिइशेषारत्यतिशायनात । क्वचिग्रथा स्वहेतुम्यो बहिरन्समलक्षयः ॥४।। इस कारिकाके द्वारा स्वामी समन्तभद्र कहते है कि किसी मात्मामें दोष ( अज्ञानादि विभावभाव) तथा आवरण ( पुदगल कर्म ) दोनोंका अभाव ( स ) रूपसे पाया जाता है, क्योंकि उनके हानिक्रममें पतिशय (उत्तरोत्तर अधिक ) हानि पाई जाती है। जो गुणस्थानों के क्रमसे मिलती है। जैसे सुवर्णमें अग्निके तीव्र पाकद्वारा कोट व कालिमा अधिक अधिक जलती है तो वह सोना पूर्ण शुस हो जाता है । कारिकाको व्याख्या लिखते हुए इशंकाकी गई है कि आवरणसे भिन्न दोष और क्या वस्तु है ? बोषको आवरण ही मान लिया जाये तो क्या हानि है? सब अकलंकदेव उसका समाधान करते हुए लिखते हैं

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