Book Title: Jain Vrat Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhisuri
Publisher: Jain Sangh Madras

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Page 9
________________ __पछी जं किंचि, नमुत्थुणं, अरिहंतचेइमाणं, अन्नत्थ कही एक नवकारनो काउस्सग्ग करी पारी, नमोऽईद कही नीचे लखेली थोय कहेवी. अर्हस्तनोतु स श्रेयः-श्रियं यद्ध्यानतो नरैः । अप्यन्द्री सकलाऽत्रहि, रंहसा सहसौच्यत ॥१॥ व्याख्या-सोऽईन्-वीतरागः श्रेयःश्रियं-मोक्षलक्ष्मी तनोतु-विस्तारयतु, स कः? यद्ध्यानतो-यस्य ध्यानात न-मनुष्यैः ऐन्द्री-इन्द्रसम्बन्धिनी अपि सा लक्ष्मीः इत्योच्यत-इत्यवादि । इतीति किं ? हे लक्ष्मि! त्वं सकला-समस्ता रंहसा-वेगेन सह भत्र एहि-त्रागच्छ इत्यक्षरार्थः ॥१॥ __पछी लोगस्स, सव्वलोए अरिहंत०, अमत्थ कही एक नवकारनो काउस्सग्ग करी बीजी थोय कहेवी. ओमितिमन्ता यच्छासनस्य नंता सदा यदङ्घीश्च।आश्रीयते श्रियाते भवतो भवतो जिनाः पान्तु।। व्याख्या:-ते जिनास्तीर्थकराः भवतः-युष्मान् भवतः-संसारात पान्तु-रक्षन्तु । ते के ? यच्छासनस्य ॐमिति मन्ता पुमान् येषां शासनस्य ॐ इत्यङ्गीकारे इदं शासनं सत्यमेवेति मन्ता मन्यमानः, च पुनरर्थे येषां चरणान्-यदीन् नन्ता पुमान् सदा-सर्वदा निया-लक्ष्म्या पाश्रीयते इत्यर्थः ॥२॥ पछी पुख्खरवरदी, सुनस्स भगवो बंदणवत्तिमाए, अन्नत्थ कही एक नवकारनो काउस्सग्ग करी पारी त्रीजी थोय कहेवी. 半生半决米米米米%%%%%%%%术%术

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