Book Title: Jain Vrat Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhisuri
Publisher: Jain Sangh Madras
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त्यारबाद नीचे लखेली गाथा लग्नवेलाए नवकार गण वापूर्वक त्रण वार उच्चराववी:अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपन्नत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं ॥
पछी खमा० दइ इच्छकारी भगवन् ! तुम्हे भम्ं सम्यक्त्व सामायिक आरोवेह, गुरु कहे भारोवेमि. शिष्य कहे इच्छं खमा० दइ संदिसह किं भणामि ? गुरु कहे वंदित्तापवेह शिष्य कहे इच्छं. खमा० दह इच्छकारी भगवन् ! तुम्हे म्हं सम्मतं आरोवियं इच्छामो अणुसडिं. गुरु कहे भारोवियं भारोवियं खमासमणाणं हत्थेणं सुत्तेणं अस्थेणं तदुभयेणं सम्मं धारजाह, गुरुगुणेहिं बुढिजाहि. नित्थारपारगाहोह. शिष्य कहे इच्छं. खमा० दइ तुम्हाणं पवेइयं संदिसह साहूणं पवेएमि, गुरु कहे पवेह. शिष्य कहे इच्छं ( खमा० दइ त्रण नवकारपूर्वक त्रण प्रदक्षिणा आपवी. ) ( या प्रसंगे गुरु तथा सकळ संघ व्रत लेनारना मस्तक उपर वासक्षेप नांखे.) पछी खमा० दइ तुम्हाणं पवेइयं साहूणं पवेइयं संदिसह काउस्सागं करोमि . गुरु कहे कह. शिष्य कहे इच्छं. खमा० दइ इच्छकारी भगवन् ! तुम्हे थम्हं सम्यक्त्व सामायिक स्थिरीकरणार्थं करेमि काउteri अन्नत्थ कही एक लोगस्सनो काउस्सग्ग सागरवरगंभीरा सुधी करी पारी प्रगट लोगस्स कहेवो. पछी अभदय अनंतकाय आदिनो नियम आापी यथाशक्ति पञ्चक्खाण करावे. पछी गुरु देशना आपे.
इति सम्यक्त्व आरोपण विधि.
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