Book Title: Jain Vrat Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhisuri
Publisher: Jain Sangh Madras
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* असियाउसाय नमस्तत्र त्रैलोक्यनाथताम् । चतुःषष्टि सुरेन्द्रास्ते, भासन्ते छत्रचामरैः ॥ ४ ॥ श्रीशंखेश्वरमंडनपार्श्वजिन ! प्रणतकल्पतरुकल्प !। चूरय दुष्टवातं, पूरय मे गंछितं नाथ ! ॥५॥
पछी जं किंचि, नमुत्थुणं, अरिहंतचेइमाणं, अमस्थ कही एक नवकारनो काउस्सग्ग करी पारी नमोऽईन कही नीचे प्रमाणे स्तुति कहेवी.
अहंस्तनोतु स श्रेयः, श्रियं यद्ध्यानतो नरैः ।
अप्यन्द्रि सकलाऽत्रेहि, रंहसा सहसौच्यत ॥ १॥ पछी लोगस्स, सम्वलोए, वंदणवत्तिाए, भन्नत्थ कही एक नवकारनो काउस्सग्ग करी पारी बीजी स्तुति कहेवी.
ओमितिमन्तायच्छासनस्य, नन्ता सदा यदंघीश्च ।
आश्रीयते श्रिया ते, भवतो भवतो जिनाः पान्तु ॥२॥ पुस्करवरदी, वंदणवत्तिमाए, अन्नत्थ कही एक नवकारनो काउस्सग्ग करी पारी त्रीजी स्तुति कहेवी.
नवतत्त्वयुता त्रिपदीश्रिता, रुचिज्ञानपुण्यशक्तिमता । वरधर्मकीर्तिविद्याऽनन्दाऽऽस्याजैनगी यात् ॥ ३ ॥
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