Book Title: Jain Vrat Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhisuri
Publisher: Jain Sangh Madras
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बाजु गणतो गुरुने नमस्कार करतो त्रण प्रदक्षिणा करे. (या प्रसंगेत्रण प्रदक्षिणा वखते सकळ संघ वासक्षेप करे.) छठं खमा० दइ तुम्हाणं पवेइयं साहूणं पवेइयं संदिसह काउस्सगं करेमि ? गुरु कहे करह. इच्छं कही सातप्तुं खमा० दइ इच्छकारी भगवन् ! तुम्हे अम्हं पंचमहाव्रतं रात्रिभोजनविरमण षष्ठं आरोवावणी करेमि काउस्सगं अन्नत्थ कही एक लोगस्सनो काउस्सग सागरवरगंभीग सुधी करी पारी प्रगट लोगस्स कहेवो. पछी खमा० दह इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी दिग्बंध करावोजी. गुरु वासक्षेप लइ नीचे प्रमाणे त्रण बार नवकार गणता बोले.
कोटिगण वयरीशाखा, चांद्रकुल आचार्य श्री , उपाध्यायश्री , प्रवर्तनी , तमारा गुरुर्नु नाम , तमाएं नाम , एम कही गुरु वासक्षेप करे. खमा० दइ अविधि आशातना मिच्छामि दुक्कडं मांगवो. खमा० दइ आदेश मागी पञ्चरकाण कर. पछी नांदने पडदो करी गुरु आदिने वंदन करे. पछी नवीन दीक्षितने संघ वांदे. पछी खमा० दइ इच्छकारी भगवन् ! हितशिक्षा प्रसाद करोजी. गुरु उपदेश भापे. यथा-चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो माणुस्सत्तं सुइ मद्धा संजमंमिप्रवीरियं ॥१॥ इत्यादि तथा उज्झिता, भक्षिता, रक्षिता अने रोहिणी ए चार श्रेष्ठिवधुनुं दृष्टांत कहे. पछी संघ साथे वाजतगाजते दर्शन करवा जाय. पछी इशानखूणामां बेसाडी एक नवकारवाळी बाधापारानी गणावबी.
इति वडीदीक्षाविधि. १ साधी होय तो प्रवर्तनीनुं नाम देवु.

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