Book Title: Jain Vrat Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhisuri
Publisher: Jain Sangh Madras

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Page 35
________________ ***KKKKK-HHHHHK HKK. गुरु ऊभा रही प्रण नवकार गणना पूर्वक त्रण वार मस्तक पर वासक्षेप नांखे. ( अत्रे पहेला सम्यक्त्व न उच्चर्यु होय तो प्रवज्या विधिना पाना पांचमामा लख्या मुजव उच्चराव. ) पछी खमा० दइ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पसाय करी व्रतदंडक उच्चरावोजी. पछी गुरु जे जे व्रतो उच्चरात्रवाना होय ते ते व्रतोना आलावा नीचे लख्या मुजब नवकार गणवा पूर्वक त्रण वखत उच्चरावे. प्रथम व्रत आलावो. अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे थुलगपाणाइवायं संकल्पो निरवराहं निरवेक्खं पञ्चखामि जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं, न करेमि न कारवेमि तस्स भंते ! पडिक्क मामि निंदाभि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि .. द्वितीय व्रत बालावो. अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीचे थुलगंमुसावायं जीहा छे आइहेडं, कन्नाली आइअं पंचविहं पञ्चखामि दक्खिन्नाइ अविसये जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि. HKKJKJKKKKKKY**

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