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करते हुए कहा है
शुधु विधातार सृष्टि नह तुमि नारी! पुरुष गड़ेछे तोरे सौन्दर्य संचारि, आपन अन्तर हते! पड़ेछे तोमार परे प्रदीप्त वासना,
अर्धेक मानवी तुमि अर्धेक कल्पना।16 अर्थात् हे सुन्दरी नारी, तुम केवल विधाता की सृष्टि नहीं हो। पुरुष ने अपने हृदय से सौन्दर्य का संचार कर तुम्हें गढ़ा है। तुम्हारे रूप को आलोकित करती रही है पुरुष की वासना की प्रदीप्त रश्मियां! तुम आधी मानवी हो और आधी कल्पना। इस आधी कल्पना को प्रेमी अपनी स्मृति के द्वारा रूपायित करता है। जिस प्रकार पुरुष अपनी कल्पना से अपनी प्रिया को संवारता है, उसी प्रकार नारी भी अपनी कल्पना से रंजित कर अपने प्रिय को अपनाती है। प्रेमी हृदय अपने प्रिय या अपनी प्रिया के सौन्दर्य को सौभाग्य-समलंकृत करके ही स्मरण करता है। विरह में तो प्रिय को पाने का एक ही उपाय है सम्पूर्ण सत्ता से उसका स्मरण। अत: यह विरहावस्था ही स्मरणीय प्रिय के सौन्दर्य की कसौटी बनकर उसको सम्यक् रूप से उरेहने का अवसर प्रदान करती
का प्रयास करती होगी तब मेरी स्मृति की कौंध के कारण उसके सधे हुए स्वरों का आरोह-अवरोह असंतुलित हो जाता होगा। दिन तो फिर भी किसी तरह कट जाता होगा लेकिन रात... । दिन में उसे कभी अकेली न छोड़ने वाली उसकी प्यारी सखियां भी जब रात में सो जाती होंगी तब भी वह धरती पर एक करवट पड़ी जागती होगी, हार के टूटे मोतियों के समान उसके आसपास बिखरे होंगे आंसू और वह बढ़े हुए नखों वाले हाथ से अपनी इकहरी वेणी के रुखे, उलझे बालों को अपने गालों पर से बार-बार हटाती होगी। दीवाल की जालियों से छनकर आने वाली चन्द्र किरणों को पूर्व अनुभवों के अनुरूप अमृत शीतल समझ कर अपना मुख उनकी ओर वह ज्यों ही करती होगी त्यों ही उनकी दाहकता से झुलस जाने के कारण अपनी आंसू भरी आंखों को पलकों से ढंक लेती होगी मानो वह मेघ घिरे दिन की स्थल कमलिनी हो जो न खिल सकती हो, न मुंद सकती हो! और भी कितनी कितनी कल्पनाएं करता है अपनी प्रिया की विरह कातरा स्थिति के बारे में यक्ष का प्रेमी हृदय ! उसे लगता है कि वह अपने मन को टटोल-टटोल कर अपनी प्रिया के मन की बात को जान सकता है... दोनों का मन एक ही जो हो गया है। तभी तो प्रेमी कहता है, 'अपने मन से जान लो मेरे मन की बात!' इसी विश्वास की कलात्मक अभिव्यंजना कालिदास ने उत्तर मेघ के अनेकानेक छन्दों में की है।
विलक्षण है विरही यक्ष का प्रिया के नाम संदेश! पहले प्रिया को आश्वस्त करने के लिए वह अपनी कुशल कहकर प्रिया की कुशलता जानना चाहता है। कैसी कुशल है भला यह! बैरी ब्रह्मा रोके हुआ है मिलन का मार्ग, अत: अभी मिलना तो संभव नहीं, किन्तु अपनी अंगकृशता से तुम्हारी अंगकृशता का, अपने प्रगाढ़ विरह ताप से तुम्हारे तदनुरूप विरह ताप का, अपने निरन्तर अश्रु प्रवाह से तुम्हारे अश्रु प्रवाह का, अपनी मिलनोत्कंठा से तुम्हारी उत्कंठा का, अपनी जलती हुई लम्बी-लम्बी सांसों से तुम्हारी उसांसो का ठीक-ठीक अनुमान तो कर ही रहा हूं। यह भी मत समझना कि तुम दूर हो तो मुझे तुम्हारा आभास नहीं होता। नहीं, नहीं, आभास तो होता रहता है। प्रियंगुलता में तुम्हारे
अंगों का, चकित हरिणी की आंखों में तुम्हारी चितवन का, चन्द्रमा में तुम्हारे मुख का, मयूरपिच्छ में तुम्हारी केश राशि का, नदी की लघु लोल लहरियों में तुम्हारे भ्रूविलास का आभास तो होता रहता है, किन्तु समग्रता में तो कोई भी तुम्हारे सदृश नहीं है। कितना मर्मस्पर्शी छन्द
प्रेमी की स्मृति में प्रेमपात्र का जो सौन्दर्य निखरता है, उसका मर्म-मधुर चित्रण कालिदास ने बहुत रस लेकर किया है। जिस प्रकार कालिदास ऐसा चित्रण करते नहीं थकते, उसी प्रकार सहृदय पाठक भी उन जीवन्त भावपूर्ण चित्रों का रसास्वादन करते नहीं थकते। प्रस्तुत है कालिदास के साहित्य से उद्धृत विरहकातर प्रेमियों द्वारा अपने प्रेमपात्रों के कल्पनारंजित, स्मृत्याधारित कुछ मनोहारी चित्र!
तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठी, मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभिः । श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां,
या तत्र स्याधुवति विषये सृष्टिराद्येव धातुः ।। संयोग के समय की खिली कमलिनी की शोभा वाली प्रिया की छवि यक्ष के स्मृति पटल में उभरती है, छरहरा तन, छोटे-छोटे दांत, कुंदरू जैसे लाल ओठ, पतली कमर, चकित हरिणी के से नेत्र, गहरी नाभि, बड़े नितम्बों के कारण मन्द-मन्द चाल, कुच भार से नमित कलेवर... अर्थात् ब्रह्मा की सर्वोत्कृष्ट कलाकृति ! किन्तु अब, अब वह कैसी लग रही होगी! यदि मैं विरह कातर चकवे के समान छटपटा रहा हूं तो वह भी विरहिणी चकवी के समान अकेली, अल्प भाषिणी, किसी किसी तरह कठिन विरह के दिनों को झेलते-झेलते पाले की मारी कमलिनी के सदृश निष्प्रभ हो गयी होगी क्योंकि वह मेरा दूसरा प्राण ही तो है। रोते-रोते सूजी आंखें, गर्म उसांसों से फीके पड़े ओठ, हाथ पर टिका कपोल, लम्बे बालों से ढंका आधा दिखने वाला उसका मुख... मेघ से अधढंके, धुंधले उदास चन्द्रमा जैसा लगता होगा। वह मलिन वसना मन बहलाने के लिए जब लगातार बहते आंसुओं से भींगी वीणा को पोंछ कर गोद में लेकर उसे बजा कर मेरे नाम का गीत गाने
श्यामास्वंगं चकितहरिणीप्रेक्षणे दृष्टिपातं, वक्त्रच्छायां शशिनि शिखिनां बहभारेषु केशान्। उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीचिषु भूविलासान्,
हन्तैकस्मिन्क्वचिदपि न ते चण्डि सादृश्यमस्ति। प्रकृति के विविध उपकरण प्रिया के अंगों की झलकें भले दे लें किन्तु अपनी समग्रता में तो वह अद्वितीय ही है, कालिदास को इसका पक्का विश्वास था। उनके द्वारा चित्रित विरही प्रेमी बार-बार इस सत्य को दुहराते हैं। इन्दुमती के शोक में अज की उक्ति है:
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ११
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