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1976 ई0 को द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन भी हो चुका है। इसका प्रमुख श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री सर राम गुलाम को है। इसमें भाग लेने के लिए भारत से 500 प्रतिनिधि गये थे जिनमें पं. श्री नारायण चतुर्वेदी, आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, उपेन्द्रनाथ अश्क आदि थे। यहां चतुर्थ विश्व हिन्दी सम्मेलन भी हो चुका है जबकि तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन दिल्ली में हुआ
था।
सन् 1965 तक अमेरिका के लोग यही जानते थे कि भारत की राष्ट्र-भाषा अंग्रेजी है। विवेकानन्द आदि विद्वानों ने अंग्रेजी में वक्तृता देकर इस धारणा को आधार दे दिया था लेकिन आज स्थिति यह है कि यहां लगभग सैकड़ों ऐसे विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय है जहां हिन्दी की पढ़ाई हो रही है। अमेरिका की कांग्रेस लाइब्रेरी तो ऐसी है जहां भारत में छपी सभी अच्छी पुस्तकें एवं पत्रिकाएं पहुंच जाती हैं और वहां से स्थानीय विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों को भेजी जाती
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फीजी में हिन्दी भाषियों की संख्या पर्याप्त है वहां के संसद में भी हिन्दी में बोलने की छूट है।
भारत से बाहर कुछ तो ऐसे देश हैं जहां भारतीयों की संख्या अधिक है और वे स्वेच्छा से हिन्दी पढ़ रहे हैं। ऐसे देश हैं- मारिशस, फीजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनीदाद, जमैका, मलयेशिया, कीनिया, थाईलैंड, वर्मा, नेपाल आदि।
जिन देशों के निवासी भारत के बारे में जानकारी के लिए या मैत्री स्थापन के लिए हिन्दी पढ़ रहे हैं, वे देश हैं- अमेरिका, कनाडा, रूस, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, हालैंड, इंग्लैंड, इटली, फ्रांस, जापान, जर्मनी आदि । आज विश्व के 100 से ऊपर विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन एवं शोध कार्य चल रहा है। जिन विदेशी हिन्दी विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं, वे हैं— कैम्ब्रिज के मैकग्रेगर, जर्मनी के लोठार लुत्से एवं श्रीमती मार्केट गास्लाफ, रूस के वारात्रिकोव,
हीरक जयन्ती स्मारिका
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प्रो. चेलिशेव एवं साजानोवा, हालैंड के प्रो. शोकर, डेनमार्क के प्रो. थीसन, पोलैंड के ब्रिस्की, इटली के तुर्बियानी, फ्रांस की प्रो. निकोल बलवीर, हंगरी की प्रो. इबा अरादी, जापान के प्रो. मिजोकामी, प्रो. कोगा और प्रो. सुजुकी उल्लेखनीय हैं। फीजी में डॉ. विवेकानन्द शर्मा, श्री जे. एस. कँवल एवं बलराम वशिष्ठ जैसे मनीषी अपनी मौलिक रचनाओं द्वारा हिन्दी का कोश बढ़ा रहे हैं। हिन्दी माँग रही बलिदान
सुन्दर सृष्टि बलिदान माँगती है। हिन्दी को नामधारी (Dejure) से कर्मधारी (Defacto ) की स्थिति तक पहुंचाना है। इसके लिए हमें अपने क्षुद्र स्वार्थ का बलिदान करना होगा। आज हिन्दी वाले ही हिन्दी बोलने में संकोच का अनुभव करने लगे हैं, यही घातक स्थिति है । इंग्लैंड और जापान के निवासी अपने देश की महंगी चीजें खरीदते हैं और विदेशी सस्ती चीजें नहीं छूते । यही भाव जब हिन्दी वालों में आ जायेगा, तभी देश का कल्याण होगा और हिन्दी को अपना उचित स्थान मिल सकेगा। सम्पन्न वर्ग ऐसे स्कूल कालेज खोलें जिनमें उच्च कोटि की शिक्षा की व्यवस्था हिन्दी माध्यम से हो। आज केवल साहस एवं दृढ़ निश्चय की अपेक्षा है । साधन सम्पन्न वर्ग यदि अपनी चाल बदल दें तो हिन्दी एवं हिन्दुस्तान का हित संवरने में देर न लगेगी। राजनेता भी जरा अपनी अन्तरात्मा को टटोलें। वे जिस भाषा में वोट मांगते हैं, उसके लिए वे क्या कर रहे हैं। समग्र हिन्दी भाषी और हिन्दी समर्थक अहिन्दी भाषी भी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर हिन्दी की शक्ति का एवं राष्ट्रीयता की भावना का सिंहनाद कर दें ताकि विश्व में चीनी व अंग्रेजी के बाद सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा को राष्ट्र-२ - संघ में भी स्वीकृति मिल सके। अटल बिहारी वाजपेयी ने सर्वप्रथम एवं नरसिंह राव ने तदनन्तर अपने भाषणों से जो अनुगूंज राष्ट्रसंघ में पैदा की है उसे वैधानिक मान्यता दिलाकर स्थैर्य प्रदान करना है।
82, रामकृष्णपुर लेन, हवड़ा-2
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विद्वत् खण्ड / ६७
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