Book Title: Jain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Author(s): Kameshwar Prasad
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 207
________________ Oअजय राय शांति निकेतन : एक परिदर्शन शिक्षकों का मिलता रहता था। लेकिन घर में तो मेरे लिए खतरे बने ही रहते थे। किसी तरह मैं घर के प्रतिकूल वातावरण में चित्रकला सीखने की इच्छा को साकार तो नहीं कर पाया, अलबत्ता संगीत सीखने की रुचि मुझमें बढ़ती गई। एक ओर गांव के छोटे-मोटे गायन कार्यक्रमों में मुझे लोग उत्साहित करते रहते तो दूसरी ओर घर पर बड़े चाचाजी अपने चमरौधे जूतों के साथ मेरी पिटाई के लिए तत्पर रहते। जब मैं घर वापस आता तो वे तब तक पीटते जब तक मैं जमीन पर गंभीर चोटें खा गिर नहीं पड़ता। ऐसे में मां मुझे अवश्य ही हिम्मत देती कि 'बेटा एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब तुम संगीत सीख पाओगे और तुम्हें गुरुदेव के आश्रम में सीखने जरूर भेजूंगी।' वैसे लोग जिन्हें संगीत या चित्रांकन की महत्ता समझ में नहीं आती, 'वे समझ पाएंगे कि ऐसे गुण घटिया नहीं होते।' ___ असुविधाओं और गरीबी का यह आलम था कि ऐसे गुणों के विकास के लिए तत्काल मुझे विश्व कवि के आश्रम में कुछ भी सीख पाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो पाया। अलबत्ता मेरे अंदर इसकी प्यास और लालसा बनी ही रही कि कभी न कभी गुरुदेव की साधना स्थली और विशिष्ट कर्मभूमि शांतिनिकेतन की लाल मिट्टी को माथे से लगा पाऊंगा। वक्त के बहुत बड़े अंतराल के बाद मुझे शांतिनिकेतन की यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हालांकि न तो मैं अब ऐसा शिशु ही रहा था और नहीं ऐसा कुछ सीख पाने की मेरी परिस्थिति या समय था। व्यक्ति को आजीविका कई बार आत्म-भ्रष्ट करती है और ऐसी-ऐसी नौकरी से भी जुड़ना पड़ता है जो उसके सम्मान के लायक न भी हो। ___ इस यात्रा की कल्पना से ही मैं रोमांचित था। मैं बिहार से आने वाली गाड़ी से बोलपुर स्टेशन पर उतर रहा था। मैं अपनी मन:स्थिति और अतिशय उत्साह को तटस्थ द्रष्टा की तरह देख पा रहा था। मेरा हृदय और कंठ बार-बार अवरुद्ध हो जाता। बचपन की इच्छा का अधूरा रह जाना और उम्र के काफी बड़े हिस्से का मुट्ठी में बंधे रेत की तरह निकल जाना पीड़ित कर रहा था। फिर भी मैं प्रसन्न था कि देर आयत दुरस्त आयत। मेरी आंखें बोलपुर स्टेशन के प्लेटफार्म नं0 एक पर स्थित उस कलाकृति पर गई जो एक ढूंठ पेड़ से बनायी गयी है। मैं उसकी विशिष्टता को देखकर अवाक् रह गया था। प्लेटफार्म नं0 एक पर ही गुरुदेव से संबंधित एक आदर्श संग्रहालय है जिसे संभवत: रेलवे ने यात्रियों की सुविधा के लिए बनवाया है। दूसरे प्लेटफार्म की ओर अगर दृष्टि दी जाय तो दीवारों पर विशिष्ट कलाकृतियां दीख जायेंगी। स्टेशन से बाहर आते ही गुरुदेव की अंतिम यात्रा जिस प्रथम श्रेणी के रेल कूपे में हुई थी उसे भी आम जनता के दर्शनार्थ प्रस्तुत किया गया है। यह सब देखकर मैं कवि गुरु के प्रति श्रद्धावनत तो था ही पूरी तरह मन-प्राण से अभिभूत हो गया। ___ बोलपुर शांतिनिकेतन का प्रवेश द्वार जैसा है। छोटा-सा कस्बानुमा शहर। छोटी-मोटी सवारियां रिक्शे, टेम्पू आदि। गांव की सौंधी मिट्टी की गंध और लोगों में ग्रामीण सरलता का भाव दीखा जो अन्यत्र अब होश संभालने के बाद से गुरुदेव की पुण्यभूमि शांति निकेतन का नाम मेरे रक्त में संगीत पैदा करता था। मैं तब इंतजार किया करता था कि कब मैं इतना बड़ा हो जाऊं कि बिना किसी खौफ के वहां पहुंच कर अपनी इच्छा पूरी कर लूं। मेरे बाल मन ने न जाने कब से सुन रखा था कि वहां चित्रांकन और संगीत की शिक्षा विधिवत् दी जाती है। तब मुझे सबसे प्रिय कार्य चित्र बनाना लगता था। हालांकि मेरे घर में ऐसी रुचियों के लिए न तो कोई स्थान था और नहीं कोई सम्मान। हां, मां ही मेरे लिए एक प्रेरणा की स्रोत थी जिसे मेरे लिए मां और पिता दोनों का दायित्व निभाना पड़ता। मेरी चित्रकला में रुचि को देखकर मेरे गांव के एक संपन्न व्यक्ति ने मुझसे बार-बार कहा था कि “तुम थोड़े बड़े हो जाओ तो मैं तुम्हें शांतिनिकेतन चित्रकला की शिक्षा के लिए भेजूंगा।" खैर, ऐसा संभव नहीं हो पाया। वादा करने वाले सज्जन तो भूल गये लेकिन मैं शांतिनिकेतन को किसी भी तरह नहीं भूल पाया और गुरुदेव की यह साधना-भूमि मुझे अपनी ओर बराबर ही खींचती रही। ___ कालांतर में मैं बिना किसी मार्गदर्शन के ही चित्र बनाने लगा था, लेकिन अपने चित्रों को सबकी नजरों से बचाकर ही रखना पड़ता क्योंकि बड़े चाचा जिन्हें संगीत एवं चित्र बकवास से ज्यादा कुछ नहीं लगते थे, उनके हाथों बुरी तरह पिट जाने का खतरा बना रहता। मेरी इस रुचि को सम्मान और प्यार मेरे ग्रामीण दोस्तों और विद्यालय के प्रिय हीरक जयन्ती स्मारिका अध्यापक खण्ड/१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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