Book Title: Jain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Author(s): Kameshwar Prasad
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 220
________________ वस्तुओं को देखती हैं अन्तरात्मा को नहीं देखती। कोई विवेक सम्पन्न पुरुष ही अमृतत्व की शुभ इच्छा से इन इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करके आत्मा को देख पाता है। अल्पज्ञ पुरुष बाहरी भोगों के ही पीछे लगे रहते हैं। इसी से वे मृत्यु के सर्वत्र फैले हुए पाश में पड़ते हैं, किन्तु ज्ञानी पुरुष अमरत्व को समझ कर संसार के क्षणिक पदार्थों में नहीं फंसते।' अत: जिस आत्मा के द्वारा मनुष्य रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श और सांसारिक सुखों को जानने में समर्थ होता है, जिस आत्मा से इस लोक की कोई भी वस्तु अविज्ञेय नहीं है, वह आत्मा सर्वज्ञ है। उसी के विषय में नचिकेता ने पूछा था। जो यहां कार्य रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है, वही कारण रूप में भी है। परन्तु जो उपाधि के सम्बन्ध से, भेद ज्ञान के कारण तथा अविद्या के प्रभाव से उस अभिन्न स्वरूप ब्रह्म को नाना रूपों में देखता हैवह बारम्बार मृत्यु को (जन्म-मरण को) ही प्राप्त होता है। इस ज्ञान की प्राप्ति केवल विचार से ही होती है। यहां तनिक भी भेद नहीं है। जो यहां भेद देखता है, वही मृत्यु की शरण में जाता है। जैसे शुद्ध जल शुद्ध जल में मिल कर एक रस हो जाता है उसी प्रकार आत्म-दर्शी पुरुष का आत्मा भी परमात्मा से मिलकर एक हो जाता है। ___ आगे चलकर यमराज ने फिर कहा- 'हे नचिकेता! मैं प्रसन्न होकर तुम्हें यह अत्यन्त गोपनीय सनातन ब्रह्म के विषय में बतला रहा हूं। ब्रह्म को न जानने से मृत्यु के बाद जीव की क्या गति होती है, सुनो! जिसके जैसे कर्म, ज्ञान तथा वासना होती है, उसी के अनुसार किसी को तो माता के गर्भ में जाना पड़ता है और किसी को वृक्ष, पाषाण आदि स्थावर योनियां प्राप्त होती हैं। जब समस्त प्राणी निद्रा-ग्रस्त रहते हैं, उस समय जो एक निर्गुण ज्योतिर्मय पुरुष अपने इच्छित पदार्थों की रचना करते हुए जागता रहता है, वही शुद्ध है, वही ब्रह्म है और वही अमृत कहा जाता है। उसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। सभी लोक उसी में अवस्थित हैं। अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।। वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।। ___ 'अग्नि और वायु जैसे एक ही एक होते हैं, फिर भी अग्नि प्रकाश स्वरूप होकर तथा वायु प्राण रूप होकर जब भुवन में प्रवेश करते हैं तब वे ही भिन्न-भिन्न वस्तुओं में भिन्न-भिन्न रूप में दिखाई देते हैं, इसी प्रकार सभी प्राणियों में रहने वाला आत्मा एक ही है, परन्तु सब । में भिन्न-भिन्न रूप में दीखता है। आकाश की तह निर्विकार होने के। कारण बाहर भी वही रहता है। सूर्यो यथा सर्व लोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्य दोषैः। एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा न लिप्यते लोक दुःखेन वाहाः।। ___ 'जिस प्रकार एक ही सूर्य समस्त लोकों की आंख होकर सभी अच्छी-बुरी वस्तुओं को देखता है, परन्तु उनके संसर्ग से होने वाले बाहरी दोषों से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सभी प्राणियों का एक ही अन्तरात्मा भी लोक के दुख से लिप्त नहीं होता, उससे बाहर ही रहता है।' समस्त प्राणियों के भीतर शक्ति रूप से अवस्थित आत्मा एक है। वही सबको अपने अधीन रखता है। वह एक ही अनेक रूपों में दिखाई देता है। जो नित्यों का नित्य एवं चेतन का भी चेतन है। जो एक हो सबकी इच्छाओं को पूर्ण करता है, उस शरीरस्थ आत्मा को जो धीर पुरुष जानते हैं, उन्हें ही नित्य सुख और शान्ति प्राप्ति होती है, दूसरों को नहीं। जिसको सूर्य प्रकाशित नहीं कर सकता, जो चन्द्रमा और तारा-गणों से प्रकाशित नहीं होता, बिजली भी जिसे प्रकाशित नहीं कर सकती, भला उसे बेचारा अग्नि कैसे प्रकाशित कर सकता है? जिसके प्रकाश से ही सब प्रकाशित होते हैं, उसी के प्रकाश से ही यह सब सूर्य आदि प्रकाशित हो रहे हैं। यह समस्त जगत् प्राण-ब्रह्म से उत्पन्न होकर उसी से नियम पूर्वक चेष्टा कर रहा है। यह महान् भय रूप है तथा उठाए हुए वज्र के समान है। जैसे अपने सामने स्वामी को हाथ में वज्र उठाये देखकर सेवक नियमानुसार उसकी आज्ञा के पालन करने में तत्पर रहते हैं, उसी प्रकार सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारा आदि रूप यह सारा जगत् अपने अधिष्ठाताओं सहित एक क्षण को भी विश्राम न लेकर नियमानुसार उसकी आज्ञाओं का पालन करता रहता है। अर्थात् इस परमेश्वर के ही भय से सूर्य और अग्नि तपते तथा इन्द्र, वायु और पांचवा मृत्यु दौड़ते हैं। अतएव जो पुरुष इस शरीर के नाश होने से पूर्व ही ब्रह्म को जान लेता है वह सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है और यदि नहीं जान पाता तो उसे इन्हीं जन्म-मरणशील लोकों में फिर जन्म ग्रहण करना पड़ता है। अन्त में उस संकल्प शून्य हृदय की स्थिति को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है,उसके लिये योग-साधना का उपदेश देते हुए यमराज ने कहायदा पञ्चाव तिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम।। तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम्। अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ। ___ 'जिस समय अपने-अपने विषयों से निवृत्त हुई पांचों ज्ञानेन्द्रियां मन के सहित आत्मा में स्थित हो जाती हैं और निश्चयात्मिका बुद्धि भी अपने व्यापारों में चेष्टा नहीं करती, उस अवस्था को ही परम गति कहते हैं। उसी स्थिर इन्द्रिय-धारणा को योग कहते हैं। उस समय पुरुष प्रमाद रहित हो जाता है, क्योंकि योग ही उत्पत्ति और नाश रूप है। तात्पर्य यह कि सिद्धियों आदि को प्राप्त कर प्रमाद नहीं करना चाहिये। लय की निवृत्ति के लिये प्रमाद का अभाव करना चाहिए। जिस समय योग-साधना द्वारा मनुष्य की सारी कामनायें नष्ट हो जाती हैं, जब मन सभी प्रकार की मलिनताओं का परित्याग कर निर्मल दर्पण की भांति पवित्र हो जाता है और जब चित्त की समस्त वासनायें पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं तथा हृदय की ग्रंथियों का छेदन हो जाता है तब यह मरणशील मनुष्य अमर हो जाता है और इस शरीर से ब्रह्म हीरक जयन्ती स्मारिका अध्यापक खण्ड / २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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