________________
गद्गद् होने लगे, आनन्द का सागर अपने अन्त:करण में उमड़ता हुआ जान पड़े, मन इस मुग्धावस्था से हटना ही न चाहे, तब समझ लेना चाहिए कि क्रिया पूरी हो गयी और साधना में सिद्धि मिल गयी। उस समय साधक समस्त आवरणों को पारकर, महाकारण जगत् आनन्दमय कोश में प्रवेश कर जाता है। आगे गुरु कृपा से आनन्द और अहम् का झीना पर्दा हट जाता है। और साधक वास्तविक भण्डार में भी एक दिन पहुंच जाता है। यही प्रणव उपासना अथवा लय योग-साधना कहलाती है।" इस साधना की एक विधि महात्मा चरण दास जी ने अपने " तत्व - योगोपनिषद" में भी बतलायी है। उपर्युक्त विधि एक अनुभवी महात्मा के ग्रन्थ से उधृत है।
इसके अलावा प्रणव के अर्थ का चिन्तन करते हुए उसके जप को भी प्रणव उपासना कहते हैं। इस प्रणव को किसी न किसी रूप में संसार में प्रचलित प्रायः सभी प्रमुख धर्मों ने अपनाया है। महर्षि पतंजलि ने इस प्रणव को ईश्वर का वाचक कहा है- तस्य वाचकः प्रणवः । श्री मद्भगवद्गीता में भी ओउम् को ब्रह्म कहा गया है— 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म' मुण्डकोपनिषद में प्रणव को धनुष, आत्मा को बाण और ब्रह्म को लक्ष्य बतलाकर अगले श्लोक में 'ओमित्येवंध्यायथ आत्मानं' कहकर सर्वात्मा पुरुषोत्तम का 'ओम्' इस नाम से जप करने को कहा गया है। माण्डूक्योपनिषद में तो केवल प्रणव के ही महत्व का प्रतिपादन करते हुए उसे ही भूत, भवत् और भविष्यत् कहकर त्रिकालातीत भी कहा गया है। वहां प्रणवोपासना की दो विधियां बतलाई गई हैं। प्रणवोपासना रूपी साधन बतलाकर यमराज ने आत्मा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आगे कहा
न जायते प्रियते वा विपश्चित्रायं कुतश्चिन्न वभूव कश्चित् । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
'यह आत्मा न जन्मता है, न मरता है, न यह किसी दूसरे से उत्पन्न हुआ है, न कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है । यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और सनातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरता । ' मरना और मारना सब शरीर के साथ होता है, आत्मा न कभी मरता है और न उसे कोई मार ही सकता है। जिस प्रकार मकान के गिर जाने से उसमें स्थित आकाश का नाश नहीं होता, इसी प्रकार देहादि के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता। केवल अज्ञानी ही इसे मरने और मारने वाला समझता है। क्योंकि यह आत्मा 'सूक्ष्म से सूक्ष्म और महानू से भी महत्तर है। यह जीव की बुद्धि रूपी गुफा में छिपा हुआ है।' इसे वही देख पाता है जो सभी प्रकार के भोगों की कामनाओं से रहित हो चुका है। जो कर्मों की सिद्धि और असिद्धि में सुख और दुख का अनुभव नहीं करता वह सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त रहता है। जो सदैव परमात्मा की अनन्त सत्ता का अनुभव करता हुआ शान्त और स्थिर रहता है। परन्तु जो इस प्रकार का नहीं है, उसे आत्मा के दर्शन नहीं होते। क्योंकि यह आत्मा परस्पर विराधी धर्मों वाला है। यह एक स्थान पर स्थित हुआ भी दूर चला जाता है तथा शयन करते हुए भी सब ओर पहुंच जाता है। इसे सूक्ष्मबुद्धि वाले विद्वान ही समझ
हीरक जयन्ती स्मारिका
Jain Education International
सकने में समर्थ हो पाते हैं। यद्यपि इस आत्मा को जानना अत्यन्त कठिन है, फिर भी उपाय करने से इसे जाना जा सकता है। यमराज कहते हैं कि इसे उनके सिवाय अन्य कौन जान सकता है।
यह एक ही आत्मा सभी ओर से सब में व्यापक होने पर भीनायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्त स्यैष आत्मा विवृणुते तनूस्वाम् ॥
'यह आत्मा न तो वेदों के प्रवचन से प्राप्त होता है, न तो बुद्धि की धारणा शक्ति से और न तो जन्म भर शास्त्रों के श्रवण मात्र से ही मिलता है। यह साधक जिस आत्मा का वरण- प्रार्थना करता है, उस वरण करने वाले आत्मा से ही यह प्राप्त किया जाता है। 'केवल आत्म-लाभ के लिए ही प्रार्थना करने वाले निष्काम पुरुष को आत्मा के द्वारा ही आत्म-दर्शन होता है। अर्थात् ऐसे साधक के प्रति आत्मा अपने स्वरूप को प्रकाशित कर देता है 'अर्थात् हम ही आत्मा हैं और हम स्वयं को ही वरण करते हैं।' परन्तु इसके लिये कुछ आवश्यक शर्तें हैं, जिनकी ओर संकेत करते हुए यमराज कहते हैं— ना विरतो दुश्चरितान्ना शान्तो ना समाहितः । ना शान्त मानसो वापि प्रज्ञानैनमाप्नुयात् ।।
'जो दुश्चरित पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियां शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त एकाग्र अथवा शान्त नहीं है वह इसे सूक्ष्म बुद्धि द्वारा विचार करने पर भी प्राप्त नहीं कर पाता। अर्थात् जो शम- दम तथा चित्त की वृत्तियों के निरोध रूप समाधि से रहित है, जिसका मन अशान्त है, उसको केवल पाण्डित्य और तर्कों की तीक्ष्णता से ही आत्म- दर्शन नहीं हो सकता। जो शम दम आदि गुणों से 'युक्त है, जो शुद्ध, संयत और समाहित चित्त है, जो इन्द्रिय-लालसाओं से विरत है और जिसने श्रवण, मनन और निदिध्यासन ( ध्यान ) द्वारा अभेद रूप ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वही प्रज्ञान द्वारा इस आत्मा को प्राप्त कर सकता है । परन्तु जो साधक ऐसा नहीं है, वह चाहे ब्राह्मण हो चाहे क्षत्रिय, उसे परमात्मा का 'अन्न' (ग्रास) बन जाना पड़ता है। सबका संहार करने वाला मृत्यु देवता भी परमात्मा के भोजन का सागपात बन जाता है। अतः ऐसे परमात्मा को साधन विहीन मनुष्य कैसे जान सकता है।
इसके पश्चात् यमराज ने जीवात्मा और परमात्मा के नित्य सम्बन्ध तथा निवास स्थान का परिचय देते हुए बतलाया है कि शुभ कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त मनुष्य शरीर को बुद्धि रूपी गुफा में सत्य का पान करने वाले जीवात्मा और परमात्मा छाया और धूप की भांति एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी अवस्थित हैं परन्तु दोनों के भोग में बहुत बड़ा अन्तर होता है। परमात्मा शुभ कर्मों के फल को भोगते हुए भी नहीं भोगते । वे केवल उन भोगों को भुगताते हैं, किन्तु जीवात्मा उन कर्मों के भोगों को भोगता हुआ सुख और दुख का अनुभव करता है। जिस प्रकार धूप के बिना छाया का अस्तित्व नहीं रहता उसी प्रकार परमात्मा के कारण ही जीवात्मा में अल्प ज्ञान का प्रकाश रहता है। अतः मनुष्य को निरंतर परमात्मा का चिन्तन करते हुए उसी को प्राप्त करने का
For Private & Personal Use Only
अध्यापक खण्ड / २१
www.jainelibrary.org