Book Title: Jain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Author(s): Kameshwar Prasad
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 210
________________ का विवेचन किया था मगर उन सभी धर्मों का सार उपरोक्त गुणों में ही सन्निहित है। उन्होंने तीस लक्षणों में सत्य, दया, तपस्या शौच, तितिक्षा, आत्म-निरीक्षण, बाह्य इन्द्रियों का संयम, आन्तर इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदृष्टि, सेवा, दुराचार से निवृत्ति, लोगों के विपरीत चेष्टाओं के फल का अवलोकन, मौन, आत्मविचार, प्राणियों को यथा योग्य अन्नादि दान, समस्त प्राणियों में विशेषकर मनुष्य में आत्मबुद्धि, इष्ट देवबुद्धि, भगवन्नाम स्मरण, कीर्तन, सेवायज्ञ, नमस्कार, साख्य, दास्य और आत्मनिवेदन आदि को प्रतिपादित किया है। परन्तु इन सभी का मूल है प्रजापति का शिक्षा मन्त्र- “द" "द" "द"- दान, दया और दमन । उन्होंने कहा है देव दनुज मानव सभी लहै परम कल्याण। पाले जो "द" अर्थ को दमन, दया अरू दान।। दया, करुणा, सेवा, दान आदि समानार्थी शब्द न होते हुए भी मूल में एक हैं। मानव सेवा से बढ़कर कोई दूसरी सेवा नहीं। इसके विभिन्न रूप हैं, शारीरिक, आर्थिक आदि। इसके लिए लोग बहुजन-हिताय, बहुजन-सुखाय की भावना से देवालय, विद्यालय, औषधालय, भोजनालय, अनाथालय, गौशाला, धर्मशाला आदि सर्वजनोपयोगी स्थानों का निर्माण बिना किसी यश कामना से भगवत्प्रीत्यर्थ करते हैं। वस्तुत: ये सेवायें मानव कल्याणकारी हैं अत: ये हमें ईश्वर के काफी करीब ला देती हैं। श्रीमद्भागवत में अपने द्वारा कमाये गये धन के दशमांश को लोक-कल्याण में लगाने का स्पष्ट विवेचन है, किन्तु यह साधारण आय वालों के लिए है। वैभवशाली, उदारचेता और उच्चकोटि के लोगों के लिए पांच भागों में ही धन बांटने का विधान है धर्माय यशसे अर्थाय कामाय स्वजनाय च। पंचधा विभजन वित्तमिहामुत्र च मोदते।। धर्म, यश, अर्थ (व्यापार आदि आजीविका) काम (जीवनोपयोगी भोग) स्वजन (परिवार) के लिए- इस प्रकार पांच प्रकार के धन का विभाजन करने वाला इस लोक और परलोक में भी आनन्दप्राप्त करता है, ऐसा वर्णन है। बिना दान दिये परलोक में भोजन नहीं मिलता ऐसी किंवदन्ति है। कहा जाता है कि विदर्भ देश में वेत नामक एक राजा राज्य करते थे। वे सतर्क होकर राज्य का संचालन करते थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। कुछ दिनों बाद उनके मन में वैराग्य आया। वे अपने भाई को राज्य सौंपकर बन में तपस्या करने चले गये। उन्होंने जिस लगन से राज्य का संचालन किया उसी लगन से हजारों वर्ष तक तपस्या की। उत्तम तपस्या के बल पर उन्हें ब्रह्मलोक की प्राप्ति हुई। वहां उन्हें सब तरह की सुविधा मिली, किन्तु भोजन का कुछ प्रबंध न था। भूख से पीड़ित उनकी इन्द्रियां शिथिल पड़ गईं, विकल हो गईं। उन्होंने ब्रह्माजी से पूछा, पितामह यह लोक भूख-प्यास रहित माना जाता है फिर किस कर्म के विपाक से मैं भूख से सतत पीड़ित हो रहा हूं। ब्रह्मा जी ने कहा, 'वत्स तुमने मृत्युलोक में कुछ दान नहीं किया, किसी को कुछ खिलाया-पिलाया नहीं। वहां बिना कुछ दिये परलोक में भी खाना नहीं मिलता। ___ भाव यह है कि मनुष्य को अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुसार मानव सेवा हेतु तन, मन, धन अर्पण करना चाहिए। सभी दानों में विद्या दान का विशेष महत्व है। यह ऐसा दान है जो बच्चों को शिक्षित कर स्वावलम्बी बना देता है। पूर्ण शिक्षा वही है जो मानव को मानव बनने की शिक्षा दे। स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय के निर्माण में सहयोग देकर साथ-साथ उनके दैनिक कार्य प्रणाली में योगदान देकर हम मानव सेवा कर सकते हैं। विद्यालयों में संस्कार 'नैतिक शिक्षा' चारित्रिक शिक्षा और मूल में दया, सेवा और परोपकार की भावना का बीजारोपण ही सच्ची शिक्षा होगी जो फलवती होगी भविष्य में। औषधालय (अस्पताल) के निर्माण में सहयोगी होकर भी, हम जन-सेवा के कार्य में भागीदार बन सकते हैं, यह चाहे शारीरिक हो या आर्थिक । मूल में इसका उद्देश्य यहां भी पीड़ित, मानवता, दुखी, रोगी और असाध्यों की सेवा ही है। Services to mankind is sevices to God को बाइबिल भी स्वीकार करता है। उसमें एक कथा वर्णित है, एक घायल रोगी असहाय सड़क पर पड़ा था। वह चिल्ला रहा था, दया की याचना कर रहा था कि कोई भी उसे अस्पताल पहुंचा दे। उधर से अनेकानेक संभ्रान्त लोग निकले मगर किसी ने उसकी न सुनी। किसी को चर्च जाने की जल्दी थी तो किसी को मन्दिर या मस्जिद, मगर उन्हीं में एक ऐसा भी व्यक्ति था जो था तो साधारण मगर उसने उसे उठाया, प्राथमिक उपचार जो कर पाया किया और उसे निकटस्थ अस्पताल पहुंचाया। उसे न चर्च, नहीं मन्दिर की चिन्ता हुई वरन् उसने मानव पीड़ा, उसकी अन्तरात्मा की आवाज को भगवान की पुकार माना और उसकी मदद की। वास्तव में यही सच्ची ईश्वर सेवा है। कबीर ने भी मानव सेवा को सर्वोपरि बताया है और ईश्वर को दीन, दलित, दुखी और असहायों में ही देखा है। उन्होंने कहा है 'कविरा सोई पीर है जो जाने पर पीर।' उन्होंने भगवान को मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघरों में कैद नहीं माना। परोपकार को उन्होंने सबसे ऊपर माना। तुलसी ने भी कहा हैपर हित बस जिनके मन माहीं। तिनकहं जग दुर्लभ कछु नाहीं। महर्षि व्यास ने भी- अठारहों पुराण का निचोड़ परोपकार, परसेवा को ही बताया है। अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य बचनद्वयं, परोपकाराय पुण्याय पापाय परिपीड़नम्। वास्तव में जनोपयोगी संस्थायें लोक मातायें ही हैं। ये दीन, दुखी, अभावग्रस्त और जन साधारण को मां की सेवा प्रदान करती हैं, मां की तरह ही भरण-पोषण करती हैं। हम यदि इन संस्थाओं की हित रक्षा में अपना तन मन धन अर्पित करें तो यही होगी हमारी सच्ची जन सेवा और भगवत्प्राप्ति। सच्चे सुख की अनुभूति तो उसे ही होती है जो उसे प्राप्त करता है उसका वर्णन नहीं हो सकता। रहीम की उक्ति है यों रहीम सुख होत है उपकारी के अंग। बांटनवारे को लगे ज्यो मेहदी के रंग।। सच्ची घटना है ग्रामीण पाठशाला की। विद्यालय के प्राथमिक कक्षा हीरक जयन्ती स्मारिका अध्यापक खण्ड / १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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