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0इन्द्रसेन सिंह
नान्यः पन्थाविद्यतेऽयनाय प्राचीन काल में ऋषि वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने यज्ञ-फल की कामना से 'विश्वजित्' नामक यज्ञ किया। इसमें यज्ञ-कर्ता को अपना सब कुछ दान कर देना पड़ता है। नियमानुसार उद्दालक ने भी अपना समस्त धन दान कर दिया। ऋषि उद्दालक के नचिकेता नामक एक पुत्र था। उस समय यद्यपि नचिकेता बालक ही था, फिर भी पिता द्वारा दक्षिणा में बूढ़ी गायों को दान देते हुए देखकर उसके पवित्र हृदय में सात्विक श्रद्धा-भाव का उदय हुआ। उसने अपने मन में विचार किया कि 'जो गायें अन्तिम बार जल पी चुकी हैं, घास खा चुकी हैं, दूध दुहा चुकी हैं और जिनकी प्रजनन-शक्ति समाप्त हो चुकी है, उन गौओं को दान करने से दाता को उन्हीं लोकों की प्राप्ति होती है जो आनन्द-शून्य हैं।' अत: पितृ-भक्ति के कारण नचिकेता चुप नहीं रह सका। यज्ञ की पूर्णता न होने के कारण, पिता को मिलने वाले अनिष्ट-फल के विषय में सोचकर उसने पिता से कहा- तत् कस्मै मां दास्य सीति' अर्थात् हे तात! आप मुझे किसको देंगे। मैं भी तो आपका ही धन हूं। पहले तो पिता ने उसकी उपेक्षा करते हुए उसकी बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। परन्तु जब नचिकेता ने इसी प्रश्न को दूसरी-तीसरी बार भी दुहराया तो ऋषि ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा- 'मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूं।'
पिता के क्रोध भरे वचन सुनकर नचिकेता सोचने लगा कि शिष्य और पुत्रों की तीन श्रेणियां होती हैं- उत्तम, मध्यम और अधम । जो शिष्य गुरु के अभिप्राय को समझ कर उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा किये
बिना ही उसका पालन कर दिया करते हैं, वे उत्तम कोटि में आते हैं। जो आज्ञा पाने पर उसका पालन करते हैं, वे मध्यम कोटि के होते हैं। परन्तु जो गुरु के मन के भाव समझ लेने और आज्ञा पाने पर भी उसकी ओर ध्यान नहीं देते वे शिष्य और पुत्र अधम श्रेणी में गिने जाते हैं। मैं (नचिकेता) बहुत से पुत्रों और शिष्यों में तो प्रथम श्रेणी का हूं और बहुतों में द्वितीय श्रेणी का भी हूं। किन्तु मैं किसी भी अवस्था में अधम श्रेणी में नहीं आता, फिर न जाने क्यों पिताजी ने मुझे मृत्यु को दे दिया? भला मृत्यु-देव का मुझसे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? शायद किसी प्रयोजन की अपेक्षा किये बिना ही पिताजी ने क्रोधवश ही ऐसा कहा है। चाहे जो भी हो अब तो पिता जी का वचन सत्य ही करना होगा। इस प्रकार नचिकेता ने मृत्यु-देवता के यहां जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उसके इस संकल्प को समझ कर ऋषि पश्चात्ताप करने लगे। पिता को इस तरह दुखी होते देख नचिकेता से नहीं रहा गया। उसने एकांत में पिता के पास जाकर कहा - 'पिताजी! आप अपने पूर्वजों के आचरण देखिये और इस समय के अन्य श्रेष्ठ पुरुषों के भी आचरण देखिये। उन लोगों के चरित्रों में न पहले कभी असत्य था, न अब है। असाधु लोग ही असत्य का आचरण करते हैं और जो लोग असत्य आचरण करते हैं, वे अजर-अमर न होकर खेती अथवा अन्न की तरह पकते (वृद्ध होकर मर जाते हैं) तथा अन्न की तरह फिर उत्पन्न हुआ करते हैं।' इस प्रकार नचिकेता ने पिता के मुख से नि:सृत वचन को - भले ही वे क्रोध में ही क्यों न कहे गये हों- सत्य प्रमाणित करने का भरसक प्रयत्न किया। क्योंकि भगवान पतंजलि के अनुसार - 'जाति, देश, काल समयानवच्छिन्ना: सार्वभौम व्रतम' अर्थात् जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित, सभी अवस्थाओं में पालन करने योग्य यम - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य-महाव्रत कहलाते हैं। जिस समय इन पांचों यमों का अनुष्ठान सार्वभौम अर्थात् सभी के साथ, सभी स्थानों पर सभी समय समान भाव से किया जाता है तभी ये महाव्रत हो पाते हैं और तभी विविध प्रकार की सिद्धियां भी प्राप्त हो सकती हैं अन्यथा अल्पव्रत द्वारा सिद्धियों की आशा करनी व्यर्थ है। अत: इनको संकुचित नहीं करना चाहिए।
पुत्र के इस प्रकार समझाने पर पिता ने सत्य की रक्षा के लिए उसे दुखी मन यमराज के पास जाने की आज्ञा दे दी। जिस समय नचिकेता यमराज के घर पहुंचा, उस समय वे कहीं बाहर गये हुये थे। अत: तीन दिनों तक अन्न-जल ग्रहण किये बिना उसे वहीं यम की प्रतीक्षा करनी पड़ी। यमराज के लौटने पर उनकी पत्नी तथा मंत्रियों ने उनसे निवेदन किया- “साक्षात् अग्नि देव ही ब्राह्मण अतिथि के रूप में घर में प्रवेश करते हैं। साधु गृहस्थ उस अतिथि रूप अग्नि की ज्वाला की शान्ति के लिये उसे जल (पादाऱ्या) दिया करते हैं। अतएव हे वैवस्वत ! आप उस ब्राह्मण-बालक के पैर धोने के लिए जल लेकर शीघ्र जाइये। अतिथि तीन दिनों से आपकी प्रतीक्षा करता हुआ अनशन किये बैठा है। अतएव जब आप स्वयं उसकी सेवा में उपस्थित होंगे तभी वह
हीरक जयन्ती स्मारिका
अध्यापक खण्ड / १७
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