Book Title: Jain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Author(s): Kameshwar Prasad
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 212
________________ 0 डॉ0 आर0 पी0 उपाध्याय गोस्वामी तुलसीदास : युग एवं व्यक्तित्व भक्त तुलसी की समस्त रचनाओं, विशेषतः रामचरित मानस में वैष्णव आन्दोलन की सर्वश्रेष्ठ झांकी मिलती है और उसकी जैसी स्पष्ट सशक्त और सम्यक् अभिव्यक्ति यहां उपलब्ध होती है वैसी अन्यत्र नहीं। नामदेव रामानन्द से तुलसी तक, लगभग 250 वर्षों तक उत्तरी भारत में वैष्णव धर्म भावना का मध्यकालीन स्वरूप विकसित होता रहा और अनेक कवियों, साधकों, भक्तों तथा मनीषी महापुरुषों के द्वारा वैष्णव विचारधारा तथा साधना पल्लवित एवं पुष्पित होती रही। हम यह कह सकते हैं कि तुलसी मध्ययुगीन वैष्णव आन्दोलन के अंतिम और शीर्षस्थ सच्चे महासाधक के रूप में सबके समक्ष आए जिनमें एक आन्दोलन का जन्म ही नहीं, उसका पूर्णोन्मेष मिलता है। अगर ध्यान से देखा जाय तो तुलसी के तारुण्य तक पहुंचते-पहुंचते यह आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका था। तुलसी के समकालीन नाभादास का भक्तमाल' इसका स्पष्ट प्रमाण है। भक्तमाल में हमें रामानुजी, रामानन्दी परम्परा का विस्तार ही अधिक उपलब्ध होता है और यह निश्चित है कि तुलसी का सम्बन्ध इसी परम्परा से है, किन्तु कृष्ण भक्ति आन्दोलन का पर्याप्त उल्लेख भी उसमें है। नाभादास, बल्लभ तथा चैतन्य की भी परम्परा से पूर्ण परिचित थे किन्तु उन्होने उन्हें उतना महत्व प्रदान नहीं किया जितना कि विशिष्टाद्वैतवादी परम्परा को प्रदान किया। बल्लभ कुल की परम्परा का ज्ञान, वार्ता ग्रन्थों से होता है। चौरासी और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता एक प्रकार से नाभादास के भक्तमाल के पूरक स्वरूप हैं। इन तीनों ग्रन्थों का अवलोकन करने से मध्ययुग की वैष्णव चेतना का सार्वदेशिक एवं ऐतिहासिक स्वरूप लोगों के सामने आ जाता है। तुलसी युगीन परिवेश की उपज हैं और उन्होंने अपने चतुर्दिक प्रवहमान वैष्णव चेतना से उतना ही ग्रहण किया है जितना सालों से या पूर्व परम्परा से। उनके व्यक्तित्व में यदि यह कहा जाय कि अपरोक्ष रूप से समस्त पूर्ववर्ती और सामयिक भक्ति चेतना आत्मसात् कर गई है तो अतिसमीचीन है। सामान्य व्यावहारिक दृष्टि से तुलसी का दर्शन उनके युग और व्यक्तित्व का प्रतिफल है। रामानन्दी परम्परा से तुलसी के समय तक ध्रुवदास और विष्णुदास की रामचरितात्मक एवं रामभक्तिपरक रचनाएं लोगों के समक्ष आ चुकी थीं और अष्टछाप के कवियों में बल्लभ के शिष्यों का कृतित्व उनके सामने था। 1545 ई0 में अष्टछाप की स्थापना तक सूरदास अपना काव्य लगभग समाप्त कर चुके थे और पुष्टिमार्ग के प्रमुख भक्त कवि बन चुके थे। शृंगारात्मक भक्ति की श्रेष्ठतम् अभिव्यक्ति सूरदास, हित हरिवंश, मीरा और हरिदास के काव्य में परिलक्षित होती है। सूरदास के पदों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस परम्परा से तुलसीदास सम्यक् रूपेण परिचित थे। रामचरित मानस में भी अप्रत्यक्ष रूप से इस काव्य धारा का प्रभाव विद्यमान है किन्तु हम देखते हैं कि इस परम्परा के लीलाभाव एवं पूर्ववर्ती रसिक रामोपासना के मूल तत्व को ग्रहण कर भी भक्त तुलसी उनके प्रति कड़ा मोर्चा कायम रखे, यह उनकी नैतिक, आदर्शात्मक तथा लोकमंगल की भावना से स्पष्ट है। तुलसी ने भगवान राम के सौन्दर्य-चित्रण के साथ ही उनके शील और शक्ति का सम्यक् संतुलन बनाये रखा। लोकहितैषी तुलसी ने शायद सोचा होगा कि रासलीला में निमग्न कृष्ण तथा काम केलिनिधान राम इस विषम परिस्थिति में उपयुक्त नहीं हो सकेंगे। इसीलिए तुलसी ने पूर्ववर्ती भुशुण्डि रामायण के "खेलतं कामकेलिं ललितरसमयं राम को और गोपी पीनपयोधरमर्दन चंचल कर युगशाली तथा नीबी बंधन मोचक को छोड़कर धृत वर चाप रूचिर कर सायक दीनबन्धु प्रनतारति मोचन" श्रुति सेतु पालक राम को अपनाया तथा उन्हीं का चित्रण किया। रामानन्दी परम्परा राम के संरक्षक एवं धर्मसंस्थापक रूप पर मुग्ध थी। इसी कारण राम का असुरनिकन्दन रूप ही विशेष मान्य हुआ। इस परम्परा में ब्रह्म के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को स्थान मिला। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी न होकर पूरक रहे। तुलसी ने निर्गुणियों को भी आराध्य रूप में ग्राह्य भगवान राम को अपना प्रतिपाद्य विषय बनाया, किन्तु उनके सगुणकर्ता विशिष्ट पुराण निगमागमसम्मत मर्यादा पुरुषोत्तम और वर्णाश्रमधर्म पालक रूप को विशेष गौरव प्रदान किया। उन्होंने सेवक सेव्यभाव की मर्यादावादी भक्ति का चित्रण किया। तुलसी लोकमंगल चेतना से परिपूर्ण थे फिर भी वे पूर्ववर्ती रसिक परम्परा में रचित भुशुण्डि रामायण के रसिक एवं रंजनशील लीलावाद से बिल्कुल विमुख नहीं थे किन्तु उसे तत्कालीन विषम परिस्थिति में पूर्णरूपेण स्वीकार नहीं कर सके। भगत हेतु अवतरेउ गोसाईं चौपाई हीरक जयन्ती स्मारिका अध्यापक खण्ड / १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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