Book Title: Jain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Author(s): Kameshwar Prasad
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 206
________________ देख रहा था। लक्ष्मण! सफलता ही सदा श्रेयस्कर नहीं होती, कभी-कभी । असफलता, पराजय तथा मृत्यु का भी आयोजन करना पड़ता है। इस युद्ध में मैंने अपने समस्त वीरों की आहुति दे दी है। लेकिन मैं जब तक जीवित रहा, तुम लंका में प्रवेश नहीं कर सके। मेरे सभी अनुयायी वीर कहां गये, इसको मुझे बतलाने की आवश्यकता नहीं। अब तुम स्वयं, सोचकर बतलाओ कि विजय किसकी हुई है।" लक्ष्मण ने कहा, "आचार्य आप धन्य हैं, विजय आपकी हुई है।" जब रावण का स्वर शिथिल होने लगा, उसने नेत्र संकेत से लक्ष्मण को अपने समीप बुला लिया, कहा- "अब मैं अधिक बोल नहीं सकूँगा। मेरी मुख्य बातों को ध्यान लगाकर सुनो। जीवन में अगर कोई महत्वपूर्ण कार्य करने की महत्वाकांक्षा हो तो उसे सब सामान्य काम छोड़कर पूर्ण कर डालना चाहिए। उसे कल पर टालने से वह कभी भी पूरी नहीं होगी। मैं सम्पूर्ण क्षार समुद्र को मधुर पेयजल में परिवर्तित कर देना चाहता था। सम्पूर्ण सागर को अनेक भूमि में विभाजित करके बांध देता, एक भाग के जल को उष्ण करके, वाष्प बना देता, बचे हुए लवण को पृथ्वी पर पर्वताकार एकत्र कर देता और वाष्प को वारिद बनाकर वर्षा के निर्मल जल से सागर के सभी भागों को पुनः भर देता, मेरे लिए असम्भव काम नहीं था।" "मैं स्वर्ग के लिए सोपान निर्मित कर देना चाहता था ताकि पापी और पुण्यात्मा का भेद मिट जाय और शरीर बल से समर्थ ही इतनी दीर्घ यात्रा कर वहां जा सके।" यह सुनकर लक्ष्मण चौंक पड़े कि कहीं यह महत्वाकांक्षा पूरी गई होती तो श्रुति शास्त्र और सत्कर्म सदा के लिए समाप्त हो जाते। "मैं चाहता था कि संसार में कभी कोई रोगी या वृद्ध न हो। इसके लिए वृक्षों में अमृत फल लगने का विधान करना चाहता था। मेरे जैसा प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को जानने वाला व्यक्ति अगर इस काम में लग गया होता तो वार्धक्य एवं मृत्यु को समाप्त कर देने वाला आविष्कार अवश्य कर लिया होता।" लक्षामण ने हंसकर कहा- 'आचार्य! आपकी महत्वाकांक्षाओं का अपूर्ण रह जाना ही विश्व के लिए वरदान हो गया।' इसी समय श्रीराम आये और अंजलिबांधकर मस्तक झुकाते हुए रावण के दाहिने इस प्रकार खड़े हो गये जिससे वह उन्हें भलीभांति देख सके। प्रभुराम ने कहा "मैं इक्ष्वाकुगोत्रीय राम पौलस्त्य दशग्रीव को प्रणाम करता हूं। अपने आचार्य को अभीष्ट दक्षिणा देने में उनके चरणों में उपस्थित हूं।" दशग्रीव के अपलक नेत्र श्रीराम के मुख पर लग गये और मुख से अंतिम शब्द निकला, "राम"। इसके बाद एक ज्योति उनके शरीर से निकली। उसने प्रभु राम की प्रदक्षिणा की और उनके चरणों में लीन हो गयी। सह शिक्षक, श्री जैन विद्यालय, कलकत्ता हीरक जयन्ती स्मारिका अध्यापक खण्ड/९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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