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पुष्पा बैद
कल्पसूत्र और चित्रकला
सभ्यता के विकास के बहुत पहले, जब मानव भाषा द्वारा अपने मन के उद्गार प्रकट करना नहीं सीख पाया था, तब वह संकेतों, रेखांकनों या चित्रों द्वारा अपने मनोन्मेषों को अभिव्यक्त करने लगा था। सभ्यता
और संस्कृति के विकास के साथ इसका रूप विविध सरणियों से गुजरता हुआ अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनता चला गया। चित्रसूत्र में इसे “कलानां प्रवरं चित्रम्' कहकर कलाओं का सम्राट घोषित किया
गया कि समस्त धार्मिक मूलपाठों को लिपिबद्ध किया जाए। दसवीं शताब्दी के पूर्व के प्रारंभिक ग्रन्थ प्राप्त नहीं हैं। इसका कारण सम्भवतः उस समय ऐसे ग्रन्थ भण्डारों का अभाव रहा होगा, जहां उन्हें सुरक्षित रखा जा सकता।
मुनि श्री कान्ति सागर का विशाल भारत पत्रिका (1947 भाग 40 अंक 6 पृ0 341-348) में, "जैन द्वारा पल्लवित चित्रकला' शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ था। उन्होंने इन जैन चित्रों को ताड़पत्र, कागज तथा वस्त्रों पर निर्मित माना है।
जैन मुनियों ने स्वतन्त्र रूप से समय-समय पर हजारों "कल्पसूत्रों" की रचना की। जिनमें ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवम् महावीर का जीवन चरित्र चित्रों के साथ लिपिबद्ध किया गया है। कुछ विशिष्ट प्रतिलिपियों का विवरण यहां प्रस्तुत है।
सन् 1216 ई0 का “कल्पसूत्र" जैसलमेर के भण्डार में सुरक्षित है। "कल्पसूत्र" व कालकाचार्य कथा “जिसका रचना काल 1370 ई0 माना गया है, मुनि पुण्य विजय जी के संग्रह में है।" कालकाचार्य कथा में 6 चित्र हैं। ये चित्र सुदक्ष कलाकौशल के उदाहरण हैं। चौदहवीं शताब्दी का “कल्पसूत्र' अहमदाबाद के साराभाई नवाब के संग्रह में सुरक्षित हैं। भारतीय नाट्य, संगीत और चित्रकला तीनों ही दृष्टियों में उसका महत्व अपूर्व है। इन चित्रों में राग, रागिनी, मूर्छना, तान की योजना संगीत शास्त्र के अनुसार है। 1427 ई0 का “कल्पसूत्र” इण्डिया आफिस लंदन में संग्रहीत है, इसमें 46 चित्र हैं।
कागज पर प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में सर्वोत्तम और प्रथम "कल्पसूत्र कलाकाचार्य' कथा अंकित है, जो प्रिन्स ऑफ वेल्स म्यूजियम में सुरक्षित है। सन् 1415 की रचना "कल्पसूत्र कालकाचार्यकथा भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका कल्पसूत्र भाग कलकत्ता की बिड़ला एकेडमी के संग्रह में है और कालक-भाग बम्बई के श्री प्रेमचन्द जैन के निजी संकलन में सुरक्षित है। सन् 1465 ई0 में चित्रित "कल्पसूत्र" के चित्र हुसैन शाह शर्की के शासन काल में जौनपुर में चित्रित हुए। इसमें नारी आकृतियों को समकालीन वेश-भूषा में दर्शाया गया है। इस तरह "जैन चित्रकला" गुजरात की श्वेताम्बर कलम से आरम्भ होकर राजपूताना में वर्षों तक अपना विकास करती रही और बाद में इरानी प्रभावों से मुक्त होकर "राजपूत कलम' में ही विलयित हो गई।'
छपाई के आविष्कार के साथ आज भी इनकी प्रतिलिपियां विभिन्न सम्पादकों द्वारा समय-समय पर मुद्रित की जा रही हैं। ___ कल्पसूत्र के चित्रकार प्राय: मुनि ही हुआ करते थे, वे आत्म सिद्धि के लिए साधना और तपश्चर्या में निरत रहते थे। इस अवस्था में उन्होंने जो कुछ भी अंकित किया तीर्थंकर-मय होकर किया। वे धार्मिक और आध्यात्मिक अन्तर्भावनाओं से ओत-प्रोत थे। उनका उद्देश्य था तीर्थंकर-वाणी को जन-जन में पहुंचाना। उन्होंने "जिन-चरित्रों" को अपनी लेखनी और तूलिका का विषय बनाया। विभिन्न रंगों की तड़क-भड़क में न पड़कर उन्होंने मूल रंगों का ही प्रयोग किया। लाल,
___ कालान्तर में मानव के समक्ष अपने आप को अतिशय भोगों से मुक्त करने की व्यग्रता व्याप्त हो गई। मुक्ति की यही कामना जैन चित्रकला का आधार बनी। लोगों के मन को अहिंसा-करुणा, शान्ति की ओर उन्मुख कर उनमें वैराग्य भाव जागृत करने का जैन मुनियों ने बीड़ा उठाया। जैन तीर्थंकरों ने अपने आप को साधना और तपश्चर्या की आग में तपाया और प्रत्येक आत्मा के उन्नयन के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। जैन-ग्रन्थों में मुनियों ने इसी आध्यात्मिक भाव-सम्पदा को जो आचार्य भद्रबाहु के समय से मौखिक रूप में चली आ रही थी, लिपिबद्ध किया। जीवन के आध्यात्मिक पहलुओं को जन-जन के हृदय में अंकुरित करने के लिए उन्होंने चित्रों का सहयोग लिया। ये चित्र उनकी उद्देश्य पूर्ति में भाषा से अधिक सशक्त सिद्ध हुए। बाद में इन्हीं चित्रों की शैली "जैन-चित्र-शैली" के नाम से प्रसिद्ध हुई।
ईसा की पांचवी शताब्दी में श्वेताम्बर जैन परम्परा के अनुसार गुजरात के वल्लभि के जैन साधुओं की एक संगीति हुई, जिसमें यह निर्णय किया
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / १००
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