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पूर्व भारत में व्यापक रूप से प्रचलित था। यही नहीं शुल्व काल से पहले ही इस तथ्य की जानकाररी हमारे देश के विद्वानों को थी क्योंकि तैत्तरीय संहिता (3000 ई0पू0) में एक तथ्य 392=362+152 दिया हुआ
शुल्व काल के महान् गणितज्ञ, शुल्व सूत्र के रचयिता बोधायन ने लिखा है- “दीर्घ चतुरश्रस्याक्षण्या रज्जुः पार्श्वमानी तिर्यगमानी च यत् पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति" __ अर्थात् दीर्घ चतुरश्र (आयत) की तिर्यंगमानी और पार्श्वमानी (लम्ब
और आधार) भुजाएं जो दो वर्ग बनाती हैं, उनका योग अकेले कर्ण पर बने वर्ग के बराबर होता है। पाइथागोरस (540 ई0पू0) ने बोधायन से लगभग 450 वर्ष बाद इस तथ्य को प्रतिपादित किया। अत: इस प्रयोग को पाइथागोरस के स्थान पर ‘बोधायन प्रमेय' कहना सुसंगत होगा।
बोधायन ने दो वर्गों के योग और अन्तर के बराबर वर्ग बनाने की विधि दी है और करणीगत संख्या का मान दशमलव के पांच स्थानों तक निकालने के लिए "सूत्र” भी बताया है जिसके द्वारा...
2 = 1 + 1/3 + 1/3.4 - 1/3.4.34 बोधायन ने अन्य करणीगत संख्याओं के भी मान दिये हैं। प्राचीन भारतीय ज्यामितिज्ञ अपने द्वारा अन्वेषित साध्यों की उपपत्ति नहीं देते थे। वे केवल सूत्र लिखते थे जो यथासंभव संक्षिप्त रूप में होते थे, जिसके कारण उनमें यत्र-तत्र अस्पष्टता भी आ जाती थी। यह संक्षिप्तता हिन्दू जाति के स्वभाव के अनुरूप थी जो कि उनकी अन्य प्राचीन कृतियों में भी परिलक्षित होती है।
इसी काल में ज्योतिष का भी विकास हुआ। (कालगणना) समय, नक्षत्रों की स्थिति और गति की गणना के लिए ज्योतिष गणित का विकास हुआ। वेदांग ज्योतिष (1000 ई0 पू0) के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस समय ज्योतिषियों को योग, गुणा, भाग आदि का ज्ञान था। जैसे
___ तिथिमेकादशाम्यस्ता पर्वभांशसमन्विताम्।
विभज्य भसमूहेन तिथि नक्षत्रमादिशेत॥ अर्थात् तिथि को ।। से गुणा करें, उसमें पर्व के भांश को जोड़ें और फिर नक्षत्र संख्या से भाग दें। इस प्रकार तिथि के नक्षत्र को बतावें। सूर्य प्रज्ञप्ति काल : __ जैन साहित्य में तत्कालीन गणित का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। वास्तव में जितने विस्तार से और स्पष्ट रूप से गणितीय सिद्धान्तों का विवेचन जैन साहित्य में किया गया है, वह जैन दर्शन का वेद के रहस्यवाद के स्थान पर ज्ञान को सामान्य लोगों की भाषा और स्तर तक पहुंचाने की प्रवृत्ति का स्पष्ट द्योतक है। इस काल की प्रमुख कृतियां 'सूर्यप्रज्ञप्ति' तथा 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' (500 ई0पू0) जैन धर्म के प्रसिद्ध धर्म ग्रन्थ हैं। इनमें गणितानुयोग का वर्णन है। सूर्य प्रज्ञप्ति में दीर्घवृत्त का स्पष्ट उल्लेख मिलता है जिसका अर्थ दीर्घ (आयत) पर बना परिवृत्त है जिसे परिमण्डल नाम से जाना जाता था। स्पष्ट है कि भारतीयों को दीर्घ वृत्त का ज्ञान मिनमैक्स
(350 ई0पू0) से लगभग 150 वर्ष पूर्व हो चुका था। यह इतिहास ज्ञात न होने के कारण पश्चिमी देश मिनमैक्स को ही दीर्घवृत्त का आविष्कारक मानते हैं। उल्लेखनीय है कि भगवती सूत्र (300 ई0पू0) में भी परिमण्डल शब्द दीर्घवृत्त के लिए ही प्रयुक्त किया गया है जिसके दो प्रकार भी बताये गये हैं- 1 : प्रतरपरिमण्डल तथा 2 : घनपरिमण्डल।
गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का श्लाघनीय योगदान रहा है। इन आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में गणित के अनेक अध्ययन तत्वों का मीमांसात्मक विवेचन रोचक ढंग से उदाहरण सहित प्रस्तुत किया है। उन्होंने संख्या - लेखन पद्धति, भिन्न त्रैराशिक व्यवहार तथा मिश्रानुपात, बीजगणितीय समीकरण एवं इनके अनुप्रयोग विविध श्रेणियां, क्रमचय, संचय, घातांक एवं लघुगणक के नियम, समुच्चय सिद्धान्त आदि अनेक विषयों पर विशद प्रकाश डाला है। समुच्चय सिद्धांत के अन्तर्गत परिमित अपरिमित, एकल समुच्चयों के अनेक उदाहरण दिये गये हैं। लघुगणक के लिए इन्होंने अर्द्धच्छेद, त्रिकच्छेद, चतुर्थच्छेद शब्दों का प्रयोग किया है जिनका अर्थ क्रमश: log2, log3, log4 है। जान नेपियर (1550-1617 ई०) के बहुत पहले लघुगणक का आविष्कार एवं विस्तृत अनुप्रयोग भारत में हो चुका था, जो एक सार्वजनीन सत्य है। पूर्व मध्यकाल (500 ई०पू० से 400 ई०पू०) तक:
इस काल में लिखी गई पुस्तकों “वक्षाली गणित", "सूर्य सिद्धांत" और "गणितानुयोग" के कुछ पन्नों को छोड़कर शेष कृतियां काल कवलित हो गयी, किन्तु इन पन्नों से और मध्य युग के आर्य भट्ट, ब्रह्मगुप्त
आदि के उपलब्ध साहित्य से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस काल में भी गणित का पर्याप्त विकास हुआ था। स्थानांग सूत्र, भगवती सूत्र
और अनुयोगद्वार सूत्र इस युग के प्रमुख ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त जैन दार्शनिक उमास्वाति (135 ई0पू0) की कृति “तत्वार्थाधिगम सूत्र भाष्य" एवं आचार्य यतिवृषभ (176 ई0 के आसपास) की कृति “तिलोयपण्णती" भी इस काल के प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ हैं।
वक्षाली गणित में अंकगणित की मूल संक्रियाएं, दाशमिक अंकलेखन पद्धति पर लिखी हुई संख्याएं, भिन्न परिकर्म, वर्ग, घन, त्रैराशिक व्यवहार, इष्ट कर्म, ब्याज, रीति, क्रय-विक्रय संबंधी प्रश्न, सम्मिश्रण संबंधी प्रश्न,
आदि का विस्तृत विवरण है। प्रश्नों के उत्तर के परीक्षण के नियम भी दिए गये हैं। वक्षाली गणित इस बात का प्रमाण है कि भारत में 300 ई०पू० भी वर्तमान अंकगणितीय विधियों का व्यापक प्रयोग हो रहा था।
स्थानांग सूत्र में 5 प्रकार के अनन्त की तथा अनुप्रयोग में 4 प्रकार के प्रमाप (Measure) की बात कही गई है। इस ग्रन्थ में क्रमचय (Permutation) एवं संचय (Combination) का भी वर्णन है, जिनको क्रमश: भंग और विकल्प के रूप में जाना गया है। उल्लेखनीय है कि भगवती सूत्र में न (n) प्रकारों में से 1-1, 2-2, प्रकारों को एक साथ लेने से जो संचय (Combination) बनते हैं, उन्हें एकक, द्विक संयोग आदि कहा है और उनका मान न, न (न-1)/2, आदि बताया गया है जो आज भी प्रचलित है। -
सूर्य सिद्धांत में वर्तमान त्रिकोणमिति का विस्तृत वर्णन मिलता है।
हीरक जयन्ती स्मारिका
अध्यापक खण्ड/२
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