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निकाली थी।
जब धनदत्त अश्वथ वृक्ष के नीचे पहुंचा और खड्डे को खुदा हुआ पाया तो सन्न रह गया। जल्दी जल्दी उस खड़े को गहरा खोदने लगा, किन्तु सब व्यर्थ, बांस नलिका तो गायब हो चुकी थी। अब तो वह पागलों की भांति किंकर्त्तव्य विमूढ़ बना जोर-जोर से रोने लगा। सारा अरण्य उसके करुण क्रन्दन से कांप उठा।
ठीक उसी समय देवदत्त भी वहां पहुंच गया किन्तु गहरे आघात से सुध-बुध खोए हुए धनदत्त देवदत्त को पहचान नहीं सका। __चतुर देवदत्त ने तुरन्त वह नलिका भाई के सम्मुख रख दी। नलिका को देखते ही धनदत्त पुन: होश में आ गया और भाई को पहचान कर उससे लिपट गया और आनन्दाश्रु से भिंगो डाला भाई का स्कन्ध, भाई की पीठ।
देवदत्त ने नलिका प्राप्ति का सारा हाल भाई को सुनाया। चैन की सांस ली धनदत्त ने। अब अपनी लोमहर्षक विदेश यात्रा का विवरण सुनाते हुए गांव पहुंचे। ___माता, पिता, परिजनों से मिलकर आनन्द के अथाह समुद्र में डूब गये धनदत्त। स्नान एवं आहारादि के पश्चात् स्वस्थ हुए धनदत्त भाई से पूछने लगे इन बारह वर्षों में उसने कितना द्रव्य उपार्जन किया।
बेचारा देवदत्त नतमस्तक होकर विनम्र शब्दों में इतना ही कह पाया,
"भैया सारा परिवार सुख शांतिपूर्वक रह सके इतना तो कमाया ही किन्तु हां! धर्मानुष्ठान खूब किये।"
क्रोध से उबल पड़े धनदत्त बोले- "मैंने तुमसे धर्मानुष्ठान की बात नहीं पूछी है। तुमने तो व्यर्थ ही खो दिये हो बारह वर्ष ? आभागा कहीं का? मुझे देखे मैंने कितना विपुल धन अर्जित किया है, अब हमारी पीढ़ियां आराम से बैठकर खा सकेंगी।" ___ इस बार उत्तेजित स्वर में उत्तर दिया देवदत्त ने, “भैया कहां है आपका धन? आपने तो जो कुछ अर्जित किया था वह सब कुछ खो चुके। एक कपर्दक के सिवाय क्या है आपके पास? यह सारा द्रव्य तो अब मेरा है। मैंने इसे लकड़हारे से क्रय किया है।" ___ सकते में आ गये धनदत्त। अवाक् से भाई का मुंह देखते रह गये। क्षमा याचना करते हुए भाई से बोले, "सचमुच देवदत्त ! यह धन तो तुम्हारा ही है। तुमने जो पुण्य उपार्जन किया था उसी के प्रताप से तुम्हें बिना कमाए ही विपुल धनराशि प्राप्त हो गई। अभागा तो वास्तव में मैं हूं जिसने धन भी खोया-समय भी।"
बड़े भाई के चरणों में गिर पड़ा देवदत्त । बोला, "नहीं भैया, सबका सब यह द्रव्य आपका ही है। मुझे तो बस धर्मानुष्ठान की आज्ञा दीजिए।"
—प्रधानाध्यापिका, श्री जैन शिक्षालय, कलकत्ता
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / १०६
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