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वाला ध्यान-योग, ऐसे ही हुआ है। दिखने में लगता है, व्यक्ति परमात्मा का चिन्तन कर रहा है, पर वहां परमात्म-चिन्तन के नाम पर पति-पत्नी का चिन्तन चलता है।
परमात्म तत्त्व की खोज आवश्यक है, पर यह खोज बाहर की खोज नहीं, अपितु भीतर की खोज हो। परमात्म खोज के नाम पर अब तक जितनी यात्राएं की गयीं, वे सब बाहर की यात्राएं थीं और परमात्मा तो अन्तर-जगत में हैं। या यूं कहे तो जो ढूंढ़ रहा है, वही परमात्मा है। परमात्मा द्वारा परमात्मा की खोज की जा रही है। मैंने कहा, परमात्मा द्वारा परमात्मा की खोज, यानि अपने आप की खोज। इसे खोज भी न कहें, यह तो आत्म-बोध है, आत्म-दर्शन है। कुन्द-कुन्द ने तो ऐसे लोगों के हाथ से निर्वाण का अधिकार ही छीन लिया, जो आत्म-बोध और आत्मदर्शन से शून्य हैं। इसलिए मोक्ष पाहुड़ में न परमात्मा की शरण स्वीकार की गयी है, न किसी देवी-देवता की। वहां कुन्द-कुन्द कहते हैं, 'अप्पाहू में शरणं' आत्मा ही मेरा शरण है। इस दुनिया में कोई किसी का शरण भूत नहीं है। कोई किसी का नाथ नहीं है, व्यक्ति स्वयं ही अपना नाथ बनता है।
महावीर का दर्शन आत्म-दर्शन है। उनके सारे सूत्र आत्म-अनुभूति के लिए हैं। वे बहिरात्मपन से छुटकारा दिलाना चाहते हैं, अन्तरात्मा में आरोहण कराना चाहते हैं और परमात्म-ध्यान करवाना चाहते हैं।
आत्मा को परमात्मा से कभी अलग नहीं किया जा सकता। दोनों एक साथ हैं। भला कपूर से खुशबू को कभी अलग निकालकर दिखलाया जा सकता है। जैसे तिल में तेल, दूध में मक्खन घुले-मिले रहते हैं वैसे ही शरीर में आत्मा और परमात्मा रहते हैं। इसलिए महावीर ने परमात्मा के ध्यान की प्रेरणा कम दी, आत्म-ध्यान पर विशेष बल दिया। 'जो झायही अप्पाणम् परम समाहि हवे तस्स' जो आत्मा का
ध्यान करता है, क्योंकि आत्मा पर से मुक्त है। जहां स्व में वास होता है वहां समाधि होती है। आत्मा न शरीर है, न मन है, न वाणी है। जड़ पुद्गलों से भिन्न जो पदार्थ है, वह आत्मा है।
महावीर परमात्म तत्व को उजागर करने का सूत्र दे रहे हैं। 'अप्पो वीय परमप्पो' आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। श्रमण संस्कृति को छोड़कर सभी धर्म-दर्शन अपने आपको परमात्मा में खो देने की प्रेरणा देते हैं। लेकिन महावीर स्वयं परमात्मा होने का पाठ पढ़ाते हैं। इसलिए जब राम और कृष्ण धरती पर अवतरण लेते हैं तब उसे अवतरण कहा जाता है। वे ईश्वर से इंसान बनते हैं। जबकि महावीर का दर्शन इंसान से ईश्वर की यात्रा है। वहां ईश्वर इंसान बनकर अपनी ऐश्वर्य शक्ति नहीं दिखाता, अपितु इंसान अपने भुजाओं के बल पर यात्रा करता है- गंगासागर से गंगोत्री की ओर, तलहटी से शिखर की ओर। यह सत्य की खोज है, शिखर की यात्रा है और उद्गम तक पहुंचना है। इस यात्रा में वे ही लोग सफल हो पायेंगे जो महावीर और बुद्ध की तरह कृत संकल्प होंगे, तेनसिंह और हिलेरी की तरह अपनी भुजाओं पर विश्वस्त होंगे।
इसलिए जिन दर्शन में अवतरण नहीं होता, ऊर्ध्वारोहण होता है। गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा होती है। गंगोत्री से गंगासागर की यात्रा तो मुर्दा भी कर सकता है। शिखर से तलहटी तक पत्थर भी लुढ़क सकता है। लेकिन गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा वे ही लोग कर पाएंगे जो चेतना के धनी हैं। तलहटी से शिखर तक वे ही लोग पहुंच पाएंगे जिनकी चैतन्य शक्ति उजागर है। इसलिये महावीर इंसान को ईश्वर बना रहे हैं, आत्मा को परमात्मा बना रहे हैं, नर को नारायण और भक्त को भगवान बना रहे हैं।
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ७८
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