Book Title: Jain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Author(s): Kameshwar Prasad
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 176
________________ इन आहत सिक्कों के पश्चात् हमें ताम्र धातु से बने पांचवी शती ई0पू0 के ढलाई के सिक्के प्राप्त होते हैं जो तीसरी शती तक कौशाम्बि, अयोध्या एवं मथुरा राज्यों के द्वारा मुद्रित किए जाते थे। इनमें से कुछ मुद्राओं पर ब्राह्मीलिपि में स्थानीय राजाओं के नाम भी अंकित किए तरह आहत की हुई मुद्राओं का आविष्कार सम्भव हो सका। पांचवीं-छठी श0ई0पू0 लिखित पाणिनि की अष्टाध्यायी के अनुशीलन से हमें तत्समय प्रचलित विभिन्न प्रकार की मुद्राओं एवं उनके अंशों का बोध होता है। इनमें निष्क, सतमान, पद, सन, कर्षापण इत्यादि प्रमुख हैं। अत: हम यह निश्चितता से मान सकते हैं कि पाणिनि काल तक भारतवर्ष में मुद्राओं का प्रचलन पूर्णत: विकसित हो चुका था। इस विकास यात्रा में अत्यधिक समय का लगना अवश्यम्भावी है। चूंकि वेदों तथा आठवीं श0ई0पू0 में लिखित ब्राह्मणों तथा उपनिषदों में इन सिक्कों का कहीं भी उल्लेख न होने से यह सुविदित हो जाता है कि सिक्कों का प्रचलन भारतवर्ष में इस वांगमय के लिखे जाने के उपरांत तथा अष्टाध्यायी के लिखे जाने से पूर्व किसी भी समय में हुआ होगा। डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त के अनुसार इस समय को सातवीं शताब्दि ई0पू0 का ठहराया जा सकता है। __ हम देख चुके हैं कि प्रागैतिहासिक काल में व्यापारिक गतिविधियां बहुधा सममूल्य की वस्तुओं के आदान-प्रदान तक ही सीमित थीं लेकिन शनैः शनैः बौद्धिक विकास के बढ़ते चरणों ने विनिमय की सर्वमान्य पद्धति को खोजना प्रारम्भ किया। जहां उच्च आदान-प्रदान का माध्यम पशुधन को बनाया गया वहीं निम्न वस्तुओं के विनिमय के लिए मालद्वीप टापू से आयातित कौड़ियों को इसका आधार बनाया गया। मूल्यवान धातुओं की खोज के उपरांत भारतवर्ष में गाय के स्थान पर 'सुवर्ण' का प्रयोग होने लगा। हिन्दुकुश पर्वत एवं नदियों से प्राप्त स्वर्णधूलि का उपयोग भी उच्च वस्तुओं के विनिमय के लिए किया जाने लगा। 'हेरोडोट्स' के मतानुसार 518 ई0पू0 से 350 ई0पू0 में फारस के क्षत्रपों द्वारा संचालित भारतीय क्षेत्र से 360 टेलेंट स्वर्णधूलि कर के रूप में आकीमेनिड साम्राज्य को चुकायी जाती थी। किन्तु बैक्ट्रियन शासकों से पूर्व (पहली दूसरी श0पू0) की स्वर्ण मुद्राएं अभी तक अप्राप्य हैं। सभी प्राचीन मुद्राएं रूपहली धातु में ही मिलती हैं। ___ जिन्हें आज आहत मुद्राओं (पंचमर्क) के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है वही संस्कृत एवं प्राकृत वांगमय में संभवत: 'पुराण' अथवा 'धारण' कहलाते थे। ये मुद्राएं आयताकार अथवा गोल रौप्य एवं कभी-कभी ताम्र धातुओं से बनाई जाती थीं। इन्हें धातुई चद्दरों से निश्चित परिमाण में काटकर एक निश्चित आकार दिया जाता था। तत्पश्चात् इन्हें विभिन्न पंचों द्वारा चिन्हित किया जाता था। इस तरह की 80 टेलेंट आहत रौप्य मुद्राएं लेटिन लेखक क्विट्स करटियस के अनुसार आंभि राजा ने अलेक्जेंडर को तक्षशिला में भेंट की। तक्षशिला की खुदाई में जॉन मार्शल को 160 आहत मुद्राओं का एक जखीरा प्राप्त हुआ था। इस समूह में डायटोडोटस की 245 ई0पू0 की एक मुद्रा भी थी। उपर्युक्त कथनों से हम आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष से लेकर तीसरी चौथी शताब्दि ई0पूर्व तक उत्तरी भारतवर्ष में आहत मुद्राएं पूर्ण रूप से स्थापित हो चुकी थीं। गुप्त साम्राज्य के आते-आते तथा चंद्रगुप्त से अशोक काल तक ये मुद्राएं समस्त भारतीय उपमहाद्वीप में पूर्णरूपेण स्थापित हो चुकी थीं। चौथी शती ई0पू0 तक भारतवर्ष में डाई द्वारा सिक्के तैयार होने लगे थे। इनको केवल एक छोर पर ही मुद्रित किया जाता था। शेर की छवि वाला ऐसा सिक्का तक्षशिला से प्राप्त हुआ है। गांधार क्षेत्र से प्राप्त कुछ मुद्राओं पर अशोक कालीन बौद्ध धर्म के धार्मिक चिन्ह यथाबोधि वृक्ष, स्वस्तिक, स्तूप इत्यादि परिलक्षित होते हैं। तत्पश्चात् पांचाल, कौशाम्बि एवं मथुरा से दोनों ओर मुद्रित डायी के सिक्के भी जारी हुए। इनमें गांधार से मुद्रित एक ओर शेर तथा दूसरी ओर हाथी की छवियों वाले सिक्के सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। ___कौटिल्य द्वारा प्रणीत चौथी श0ई0पू0 के अर्थशास्त्र से हमें उस समय के सिक्कों के बनाने की पद्धति के विषय में जानकारी मिलती है। विभिन्न ज्यामितीय उपमानों में प्राप्त आहत मुद्राएं महाभारत के 11वीं शीत ई0पू0 के युद्ध के पश्चात् बचे जनपदों एवं महाजन पदों द्वारा जारी की गई थीं। ये सभी जनपद पांचवीं श0ई0पू0 में मगध साम्राज्य के उदय के साथ ही उसमें विलीन हो गए। यद्यपि सर्वप्रथम इन मुद्राओं को किसने जारी किया, यह जानना अत्यन्त कठिन है तथापि हमें सूरसेन, उत्तर एवं दक्षिण पांचाल, वत्स, कुनाल, कौशल, काशी, मल्ल, मगध, बंग, कलिंग, आंध्र, अस्माक, मुलका, अवन्ति, उत्तरी महाराष्ट्र, सौराष्ट्र एवं गांधार क्षेत्रों से मगध साम्राज्य के उदय से पूर्व की मुद्राएं मिलती हैं। अजातशत्रु के मगध साम्राज्य की बागडोर सम्हालने के साथ ही समस्त भारतवर्ष के निमित्त एक ही तौल के सिक्के प्रचलित किए गए जो द्वितीय श0 पूर्व मगध साम्राज्य के पतन होने तक जारी किए जाते रहे। इन मुद्राओं को 'कार्षापण' अथवा 'पण' के नाम से जाना जाता है। इनके छोटे स्वरूप को 'मेषक' नाम दिया गया है। लेकिन द्वितीय श0ई0पू0 में किसी समय इनके मुद्रण में व्यवधान उपस्थित हुआ, जिसके फलस्वरूप इनकी उपलब्धता में अतिशय ह्रास हुआ। फलतः कतिपय स्थानों पर इन मुद्राओं को ढलाई अथवा डाटू के माध्यम से मुद्रित किया जाने लगा। झूसी, शिशुपालगढ़, मथुरा, कोंडापुर, एरन से उपलब्ध मृद, मूषिकाएं इनके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। कौटिल्य प्रणीत अर्थशास्त्र के अनुसार ताम्रधातु की आहत मुद्राएं भी प्रचलित थीं। ये मुद्राएं हमें उज्जैन, मगध, विदिशा, अंग, मथुरा एवं मेवाड़ प्रदेशों से प्राप्त हुई हैं। तत्पश्चात् ताम्र मुद्राएं मूषिकाओं में ढालकर भी बनाई जाने लगी जो प्राय: समस्त उत्तरी भारतवर्ष में लोकप्रिय थीं। इनका प्रचलन समय तीसरी शताब्दि ई0पू0 से तीसरी शताब्दि तक का आंका जाता है। ____ 326 ई0पू0 में अलेक्जेंडर के भारतवर्ष प्रवेश के साथ ही भारतीय मुद्रा इतिहास में आमूल-चूल परिवर्तन परिलक्षित होता है। और एक नई पद्धति के सिक्के प्रकाश में आते हैं। इन सिक्कों में शासकों तथा हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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