Book Title: Jain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Author(s): Kameshwar Prasad
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 167
________________ शासक - शासित का भेद अहंकार के कारण ही खड़ा होता है। वर्तमान युग में बड़े राष्ट्रों में जो अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की प्रवृत्ति है उसके मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टि ही है जब व्यक्ति में आधिपत्य की वृत्ति दृढ़ होती है, तो वह दूसरों के अधिकारों का हनन करता है, परिणामत: दूसरों की स्वतन्त्रता खण्डित होती है। न केवल शासित और शासक का भेद अपितु जातिभेद और वर्गभेद के पीछे भी यही अहंकार का तत्व काम करता है। जब हम अपने कुल या जाति के अहंकार से युक्त होते हैं तो दूसरों को हीन समझने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, जिसका परिणाम जाति संघर्ष या वर्ग संघर्ष होता है। जातिवाद का विरोध और सामाजिक समता १६ १७ जैनधर्म अहंकार के उपशमन के साथ-साथ जातिवाद और वर्णवाद का स्पष्टरूप से विरोध करता है, वह कहता है कि किसी जाति में जन्म लेने मात्र से नहीं अपितु व्यक्ति का सदाचार और उसकी नैतिकता ही उसको श्रेष्ठ बनाते हैं। इस प्रकार जैनधर्म जातिगत श्रेष्ठता के सम्प्रत्यय का विरोध करता है। वह स्पष्टरूप से कहता है कि कोई व्यक्ति इस आधार पर ब्राह्मण नहीं होता कि वह किसी ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुआ है, अपितु वह ब्राह्मण इस आधार पर होता है कि उसका आचार और व्यवहार श्रेष्ठ है। " जैनदर्शन जातिगत श्रेष्ठता के स्थान पर आचारगत श्रेष्ठता को ही महत्व देता है आचारांग में स्पष्ट कहा गया है कि न तो कोई हीन है और न कोई श्रेष्ठ आज हम देखते हैं कि जातिगत । ' आधारों पर अनेक सामाजिक संगठन बनते हैं लेकिन ऐसे सामाजिक संगठनों को जैनधर्म कोई मान्यता नहीं देता है। आज भी जैनसंघ में अनेक जातियों के लोग समान रूप से अपनी साधना करते हैं। मथुरा आदि के प्राचीन अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि अनेक जिन-मन्दिर और मूर्तियां गंधी तेली, स्वर्णकार, लोहकार, मल्लाह, नर्तक और गणिकाओं द्वारा निर्मित हैं ये सभी जातियां और वर्ग जो हिन्दू धर्म में वर्णव्यवस्था की कठोर रूढ़िवादिता के कारण निम्न मानी गई थीं, जैनधर्म में समादृत थे।" हरिकेशीबल ( चाण्डाल), मातंग, अर्जुन (मालाकार) आदि अनेक निम्न जातियों में उत्पन्न हुए महान् साधकों की जीवन गाथाओं के उल्लेख जैनागमों में मिलते हैं, जो इस तथ्य के सूचक हैं कि जैनधर्म में जातिवाद या ऊँच-नीच के भेद-भाव मान्य नहीं थे । १९ इस प्रकार जैनधर्म समाज में वर्गभेद और वर्णभेद का विरोधी था। उसका उद्घोष था कि सम्पूर्ण मानव जाति एक है। २० सामाजिक जीवन की पवित्रता का आधार विवाह संस्था सामाजिक जीवन का प्रारम्भ परिवार से ही होता है और परिवार का निर्माण विवाह के बन्धन से होता है। अतः विवाह संस्था सामाजिक दर्शन की एक प्रमुख समस्या है। विवाह संस्था के उद्भव के पूर्व यदि कोई समाज रहा होगा तो वह भयभीत प्राणियों का एक समूह रहा होगा जो पारस्परिक सुरक्षा हेतु एक-दूसरे से मिलकर रहते होंगे। विवाह का आधार केवल यौन वासना की संतुष्टि ही नहीं है अपितु पारस्परिक आकर्षण और प्रेम भी है। यह स्पष्ट है कि निवृत्तिप्रधान संन्यासमार्गी जैन परम्परा में इस विवाह संस्था के सम्बन्ध में कोई विशेष विवरण नहीं मिलते हीरक जयन्ती स्मारिका Jain Education International हैं। जैनधर्म अपनी वैराग्यवादी परम्परा के कारण प्रथमतः तो यही मानता रहा कि उसका प्रथम कर्त्तव्य व्यक्ति को संन्यास की दिशा में प्रेरित करना है इसलिए प्राचीन जैन आगमों में जैनधर्मानुकूल विवाह पद्धति २१ कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होते। प्राचीनकाल में बृहद् भारतीय समाज या हिन्दू समाज से पृथक जैनों की अपनी कोई विवाह पद्धति रही होगी यह कहना भी कठिन है। यद्यपि यह सत्य है कि जैन धर्मानुयायियों में प्राचीनकाल से ही विवाह होते रहे हैं। जैन पुराण साहित्य में यह उल्लेख मिलता है कि ऋषभदेव से पूर्व यौगलिक काल में भाई-बहन ही युवावस्था में पति-पत्नी के रूप में व्यवहार करने लगते थे और एक युगल मैं पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने पर ऋषभ ने सर्वप्रथम विवाह पद्धति का प्रारम्भ किया था। स पुनः भरत और बाहुबली की बहनों ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा भी आजीवन ब्रह्मचारी रहने और अपने भाइयों से विवाह न करने का निर्णय लिये जाने पर समाज में विवाह व्यवस्था को प्रधानता मिली, किन्तु विवाह को धार्मिक जीवन का अंग न मानने के कारण जैनों ने प्राचीन काल में किसी जैन विवाह पद्धति का विकास नहीं किया। इस सम्बन्ध में जो भी सूचनाएं उपलब्ध होती हैं उस आधार पर यही कहा जा सकता है कि विवाह के सम्बन्ध में जैन समाज बृहद् हिन्दू समाज के ही विधि-विधानों का अनुगमन करता रहा और आज भी करता है। प्राचीन जैन ग्रन्थों में विवाह कैसे किया जाय, इसका उल्लेख तो नहीं मिलता है, किन्तु विवाह संस्था को यौन सम्बन्धों के संयमन का एक साधन मानकर उसमें गृहस्थ उपासकों के लिए स्वपत्नी संतोषव्रत का विधान अवश्य मिलता है। आदिपुराण में विवाह एवं पति-पत्नी के पारस्परिक एवं सामाजिक दायित्वों की चर्चा है उसमें विवाह के दो उद्देश्य बताए गए हैं— ( 1 ) कामवासना की तृप्ति और (2) सन्तानोतत्पत्ति | जैनाचार्यों ने विवाह संस्था को यौन सम्बन्धों के नियन्त्रण । एवं वैधीकरण के लिए आवश्यक माना था। गृहस्थ का स्वपत्नी संतोषव्रत न केवल व्यक्ति की कामवासना को नियन्त्रित करता है, अपितु सामाजिक जीवन में यौन व्यवहार को परिष्कृत भी बनाता है अविवाहित स्त्री से यौनसम्बन्ध स्थापित करने, वेश्यागमन करने आदि के निषेध इसी बात के सूचक हैं जैनधर्म सामाजिक जीवन में यौन सम्बन्धों की शुद्धि - - - २२ आवश्यक मानता है। विवाह के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए आदिपुराण में बताया गया है कि जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित व्यक्ति उसके उपशमनार्थ कटु औषधि का सेवन करता है, उसी प्रकार काम ज्वर से सन्तप्त हुआ प्राणी उसके उपशमनार्थ स्त्रीरूपी औषधि का सेवन करता है। इससे इतना प्रतिफलित होता है कि जैनधर्म अवैध या स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों का समर्थक नहीं रहा है। उसमें विवाह सम्बन्धों की यदि कोई महत्वपूर्ण भूमिका है तो वह यौन सम्बन्धों के नियन्त्रण की दृष्टि से ही है और यह उसकी निवृत्तिमार्गी धारा के अनुकूल भी है। उसकी मान्यता के अनुसार यदि कोई आजीवन ब्रह्मचारी बनकर संयम साधना में अपने को असमर्थ पाता है तो उसे विवाह सम्बन्ध के द्वारा अपनी यौनवासना को नियन्त्रित कर लेना चाहिए। इसीलिए श्रावक के पांच अणुव्रतों में For Private & Personal Use Only विद्वत् खण्ड / ८४ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270