Book Title: Jain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Author(s): Kameshwar Prasad
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

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Page 147
________________ कचहरियों तक ही सिमट कर रह गया। हिन्दी ही समूचे राष्ट्र की सम्पर्क भाषा थी, राष्ट्रभाषा थी। कुंभ मेलों में जहां देश के हर कोने से तीर्थयात्री आते हैं, हिन्दी का ही व्यवहार करते थे और आज भी करते हैं। साधुओं के अखाड़े भी समग्र भारत के संगम स्थल होते हैं। वहां भी हिन्दी का ही व्यवहार होता चला आ रहा है। चारों धाम की तीर्थ यात्रा के समय हिन्दी ही सम्पर्क सूत्र का काम करती है। हिन्दी का प्रचार हिन्दीतर प्रदेशों में काफी अधिक रहा है। गुलामी के समय आसेतु हिमालय की प्रिय भाषा हिन्दी ही थी। इसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि कोई भी विदेशी जो हिन्दुस्तान में आया, हिन्दी ही पढ़ना आवश्यक समझा। डच यात्री जान केटेलर ने सन् 1685 ई0 में हिन्दी का प्रथम व्याकरण लिखा। वह सूरत (गुजरात) में रहता था और वहां व्यापारियों की भाषा का उसने अध्ययन किया जिसमें गुजराती मिश्रित हिन्दी थी। उसने जो व्याकरण लिखा, उसमें हिन्दी की ही प्रधानता थी। ___ इसी प्रकार मद्रास में ईसाई पादरी बेन्जामिन शुल्गे ने सन् 1719 ई0 में हिन्दी का व्याकरण 'अमेटिका हिन्दोस्तानिका' लिखा। इस पादरी ने मद्रास में रहते हुए भी यह अनुभव किया कि हिन्दुस्तान की जनता के साथ विचार-विनिमय के लिए एक मात्र यदि कोई भाषा सर्वाधिक समर्थ है तो वह है हिन्दी। हिन्दी सारे हिन्दुस्तान में इतनी धड़ल्ले से बोली जाती थी कि ईसाई धर्म प्रचारकों ने सर्वप्रथम हिन्दी को ही अपनाया। और अंग्रेज अधिकारी एडवर्ड पिनकाट ने इंग्लैंड से यह राजाज्ञा निकलवा दी कि भारत में वही अंग्रेज अधिकारी नियुक्ति पा सकता है जो हिन्दी जानता हो। स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने धर्म का प्रचार संस्कृत में कर रहे थे लेकिन केशव चन्द्र सेन के आग्रह पर आपने हिन्दी में अपना प्रचार कार्य शुरू किया। हिन्दी का आश्रय पाकर ही आर्य समाज अल्पकाल में इतना प्रचार-प्रसार पा सका। गोस्वामी तुलसी दास संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे लेकिन उन्हें अपने पाण्डित्य प्रदर्शन की ललक न थी। वे राम कथा को जन-जन तक पहुंचाना चाहते थे। इसी से उन्होंने हिन्दी का सहारा लिया। यही बात रही सूफी सन्तों के साथ। वे भी अपने को जन-जन तक पहुंचाने के लिए हिन्दी का सहारा लेते रहे। ___ अंग्रेजी शासन के समय अंग्रेज बुद्धिजीवियों की भाषा बन गई। ये बुद्धिजीवी दो प्रकार के थे: 1- एक वे थे जो अंग्रेजी पढ़कर ऊंचा ओहदा पाना चाहते थे, अंग्रेजों की प्रीति एवं अपने लोगों में सम्मान पाना चाहते थे। इनका प्रयास आत्मनेपदी था। 2- दूसरे वे थे जो अंग्रेजी पढ़कर अंग्रेजों का जवाब देना चाहते थे और आजादी की लड़ाई को जानदार बनाना चाहते थे। सुभाष चन्द्र बोस, सावरकर आदि इसी कोटि के थे। यह संयोग की या सौभाग्य की बात हुई कि कुछ आत्मनेपदी नेता भी काल प्रवाह में परस्मैपदी बन गये। अस्तु, इन नेताओं ने बहुत शीघ्र यह अनुभव कर लिया कि अंग्रेजी से हम स्वतंत्रता संग्राम में आम जनता की भागीदारी नहीं पा सकते। बुद्धिजीवियों की भाषा हवाई भाषा है, धरती की भाषा हिन्दी भाषा ही है। भारत की जनता को जगाने के लिए गांधीजी ने हिन्दी का सहारा लिया। विनोबा भावे भारत की कई भाषाओं के पण्डित थे लेकिन उन्होंने भी सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी को ही अपनाया। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व देश के सभी मनीषी एक स्वर में बोल रहे थे कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्र भाषा बनने की क्षमता रखती है। राजा राम मोहन राय का कहना था- “हिन्दी ही ऐसी भाषा नजर आती है जिसे राष्ट्रभाषा के पद पर बिठाने का प्रस्ताव रखा जा सकता है।" केशव चन्द्र सेन ने कहा, "अभी जितनी भाषाएं भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी ही सर्वत्र प्रचलित भाषा है। इसी हिन्दी को यदि भारतवर्ष की एकमात्र भाषा स्वीकार कर लिया जाय, तो यह (एकता) सहज ही में सम्पन्न हो सकती है।" बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय कहते हैं, "बिना हिन्दी की शिक्षा दिये, अंग्रेजी के द्वारा यहां का कोई कार्य नहीं चलेगा। भारत के अधिकांश लोग अंग्रेजी और बंगला न तो बोलते हैं और न समझते ही हैं। हिन्दी के द्वारा ही भारत के विभिन्न भागों के मध्य ऐक्य स्थापित हो सकेगा।" बंग दर्शन - खण्ड - 5 वर्ष, 1884 रवीन्द्र नाथ टैगोर के कथानानुसार, "अगर हम हर भारतीय के नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं तो हमें उस भाषा को (राष्ट्रभाषा के रूप में) स्वीकार करना चाहिए, जो देश के सबसे बड़े भाग में बोली जाती है और जिसके स्वीकार करने की सिफारिश महात्माजी ने हमलोगों से की है- अर्थात् हिन्दी" कलकत्ता हिन्दी क्लब बुलेटिन सित., 1938 । सुभाष चन्द्र बोस ने कहा, “मैंने सर्वदा ही यह अनुभव किया है कि भारत में एक राष्ट्रभाषा का होना आवश्यक है और वह हिन्दी ही हो सकती है।" एडवांस जुलाई, 1938। ___इसी प्रकार महाराष्ट्र में लक्ष्मण नारायण गर्दे, बाबू राम विष्णु पराडकर, माधव राव सप्रे ने हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। पंजाब में लाला लाजपत राय, लाला हंसराज, स्वामी श्रद्धानन्द आदि हिन्दी की सेवा कर रहे थे। राजस्थान और गुजरात तो हिन्दी प्रचारकों का गढ़ ही रहा है। तात्पर्य यह है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में भाषा को लेकर कोई विवाद न था। हवा हिन्दी के पक्ष में बह रही थी। सभी का ध्यान राष्ट्रहित पर टिका हुआ था। राष्ट्र के लिए उत्सर्ग का भाव था। आदर्श नागरिकता थी। देशवासियों का मनोबल ऊंचा था। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महात्मा गांधी का योगदान अमूल्य है। आपने हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए सन् 1936 ई0 में 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' की स्थापना की थी। 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा' ने ही सन् 1975 में नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया था। स्वतंत्रता प्राप्ति पूर्व इन संस्थाओं द्वारा हिन्दी का काफी जोरदार प्रचार होता रहा। गांधी जी ने 1918 में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापतित्व किया था। आपने अध्यक्ष पद से सुझाव दिया था कि राष्ट्रीय हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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