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के कारण ही बवासीर, कब्जियत, नासूर और भगन्दर आदि रोग होते हैं। मूत्र के आवेगों को रोकने से मूत्राशय के अनेक रोग होते हैं। महावीर के विधान में उच्चार निरोध (मल रोकना) तथा प्रस्राव-निरोध (मूत्र रोकना) सर्वथा निषिद्ध है। इसके औचित्य की पुष्टि प्राचीन आयुर्वेद तथा वर्तमान चिकित्सा पद्धति में सर्वत्र मिलती है। संभवत: मेरा बाल मुनि-मित्र किसी ऐसे गण या गच्छ में रहा होगा जहां नाम तो महावीर का लिया जाता है लेकिन आहार-विहार की विधि शहरी-जीवन से प्रभावित है। जहां प्रात: 'बेड-टी' की गवेषणा होती है। फिर नास्ते की गवेषणा, दूसरे प्रहर में भोजन की गवेषणा, तीसरे प्रहर में चाय-नास्ते की गवेषणा तथा अंतिम प्रहर में पुन: सांध्य-भोजन की गवेषणा होती है। फिर सूर्यास्त से पूर्व पात्र भर-भर कर जल पीने का क्रम चलता है। भोजन के बाद तत्काल और गले तक जल भर कर फिर सांध्य-आराधना तथा प्रवचनादि होते हैं और निद्रा तो रात्रि के दूसरे प्रहर में ही संभव है। जहां शरीर के आवेगों से अधिक महत्व प्रवचनों तथा लोक-संपर्क को दिया जाता है, वहां लीवर तथा पाचन प्रणाली के रोग होंगे ही क्योंकि भगवान के प्रणीत विधान का नित्य उल्लंघन होता है। भोजन के बारे में भगवान शाकाहार-मांसाहार के विवाद में नहीं गये हैं, लेकिन उनकी प्ररूपणा में हिंसा का निषेध होने से भोजन का विकल्प शाकाहार ही शेष रहता है। चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से यह भी महत्वपूर्ण है। मांसाहारी जानवरों के दांतों की बनावट तथा पाचन-संस्थान की संरचना में शाकाहारियों से सर्वथा विपरीत शारीरिक संस्थान होता है। इस दृष्टि से मनुष्य शाकाहारी वर्ग में आता है। मांसाहार उसके लिए नैसर्गिक नहीं है। मांसाहार में यूरिक एसिड ज्यादा होता है जो गठिया जैसे रोगों को जन्म देता है। साथ ही उसमें वसा की मात्रा इतनी ज्यादा होती है कि वह हृदय, लीवर और तिल्ली सबके लिए हानिकारक है। संसार के सबसे बड़े मांसाहारी देश अमेरिका में हृदय रोग से मृत्यु की दर सबसे ज्यादा है, साथ ही यकृत, लीवर कैंसर तथा पित्ताशय की पथरी के रोग ज्यादा पाये गये हैं। प्रकृति प्रदत्त फल, दूध, हरी सब्जियां, सूखे फल और मेवे, दालें
आदि मानव शरीर के लिए पोषक हैं। महावीर जैसी ही बात नाथपंथी सिद्ध मुनि श्री गोरख नाथ की वाणी में भी मिलती है
आसन दृढ़ आहार दृढ़ जे निद्रा दृढ होई, गोरख कहे सुनो रे पूतां मरे न बूढ़ा होई। आसन का अर्थ पतंजलि की दृष्टि में सुखासन है जिसमें चांचल्य त्याग कर व्यक्ति देह स्थिर कर दीर्घ समय तक बैठ सके। आहार की दृढ़ता सात्विकता, पोषकता तथा पवित्रता में है। निद्रा की दृढ़ता स्वप्न रहित प्रगाढ़ निद्रा में है जिसे योग निद्रा कहा गया है।
भोजन के अलावा चर्या तथा भाव भी स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। महावीर ने इसे जागरुकता (जयं) पूर्वक चलना, उठना, बैठना, बोलना, आहार-विहार आदि करना कहा है। गोरखनाथ भी इसी प्रकार का मंतव्य प्रकट करते हैं
हबकि न बोलना, ठबकि न चलना, धीरे रखना पांव,
गरब न करना, सहजे रहना, भणंत गोरख राव। भगवान बुद्ध का मध्यम मार्ग, जिसे आर्य अष्टांगिक मार्ग कहा गया है, इसी ओर इंगित करता है। भगवद्गीता में भी तामसिक, राजसिक व सात्विक आहारों का विवरण देकर उनकी तुलना की गयी है तथा शरीर और मन पर उनके प्रभाव का विवेचन है जो पठनीय तथा मननीय है। लाओ-त्से ने ताओ-दर्शन में भी इसी मध्यम मार्ग की चर्चा की
अंत में मुझे विजयवाड़ा के एक ईसाई सर्जन की बात याद आती है। मेरे एक मित्र की पत्नी को ऑपरेशन के समय दूसरे का रक्त दिया गया था। उसने चेतावनी दी थी कि जब तक यह पराया रक्त शरीर में है। उसके स्वभाव तथा व्यवहार में अप्राकृतिकता आ सकती है। मेरे पूछने पर कि यदि पराये रक्त का यह प्रभाव है तो पराये मांस का क्या प्रभाव होता होगा जो लाखों आदमी खाते हैं। उसने स्पष्ट कहापशु होकर ही कोई पशु को खा सकता है और पशु को खाने से पशुता आना अनिवार्य है। वर्तमान युग की दारुण हिंसा का यही कारण है।
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ६२
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