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0 डा0 सुरेश सिसोदिया
(13वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है। सामान्यतया प्रकीर्णकों का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण, प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परम्परागत मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण, एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था। समवायांगसूत्र में "चोरासीइं पण्णगसहस्साहं पण्णत्ता" कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों की ओर संकेत किया गया है? आज यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या निश्चित नहीं है, फिर भी आज 45 आगमों में दस प्रकीर्णक माने जाते हैं। ये दस प्रकीर्णक निम्नलिखित
जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णक ग्रन्थों का स्थान
प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाईयों के लिए बाइबिल, और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्व है, वही स्थान और महत्व जैनों के लिए आगम साहित्य का है। सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य- अर्द्धमागधी आगम साहित्य और शौरसेनी आगम साहित्य, ऐसी दो शाखाओं में विभक्त है। इनमें अर्द्धमागधी आगम साहित्य न केवल प्राचीन है अपितु वह महावीर की मूल वाणी के निकट भी है। शौरसेनी आगम साहित्य का विकास भी अर्द्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीन स्तर के इन्हीं आगम ग्रन्थों के आधार पर हुआ है। अत: अर्द्धमागधी आगम साहित्य शौरसेनी आगम-साहित्य का आधार एवं उसकी अपेक्षा प्राचीन भी है।
प्राचीन काल में अर्द्धमागधी आगम साहित्य- अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य, ऐसे दो विभागों में विभाजित किया जाता था। अंग प्रविष्ट में ग्यारह अंग आगमों और बारहवें दृष्टिवाद को समाहित किया जाता था। जबकि अंग बाह्य, में इनके अतिरिक्त वे सभी आगम ग्रन्थ समाहित किये जाते थे, जो श्रुतकेवली एवं पूर्वधर स्थविरों की रचनाएं माने जाते
(1) चतु:शरण (2) आतुरप्रत्याख्यान (3) भक्तपरिज्ञा (4) संस्तारक (5) तंदुलवैचारिक (6) चन्द्रकवेध्यक (7) देवेन्द्रस्तव (8) गणिविद्या (9) महाप्रत्याख्यान और (10) वीरस्तव।
इन दस प्रकीर्णकों के नामों में भी भिन्नता देखी जा सकती है। कुछ ग्रन्थों में चन्द्रकवेध्यक और वीरस्तव के स्थान पर मरणसमाधि और गच्छाचार को गिना गया है। कहीं संस्तारक को नहीं गिनकर उसके स्थान पर गच्छाचार और मरणसमाधि को गिना गया है।
दस प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों की श्रेणी में मानता है। परन्तु प्रकीर्णक नाम से अभिहित इन ग्रन्थों का संग्रह किया जाये तो निम्न बाईस नाम प्राप्त होते हैं
(1) चतु:शरण (2) आतुरप्रत्याख्यान (3) भक्तपरिज्ञा (4) संस्तारक (5) तंदुलवैचारिक (6) चन्द्रकवेध्यक (7) देवेन्द्रस्तव (8) गणिविद्या (9) महाप्रत्याख्यान (10) वीरस्तव, (11) ऋषिभाषित (12) अजीवकल्प (13) गच्छाचार (14) मरणसमाधि (15) तित्थोगालि (16) आराधनापताका (17) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (18) ज्योतिष्करण्डक (19) अंगविद्या (20) सिद्धप्राभृत (21) सारावली और (22) जीवविभक्ति।
इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं, यथा- “आउरपच्चक्खाण" के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं।
नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रकवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान- ये सात प्रकीर्णक तथा कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति - ये दो प्रकीर्णक, अर्थात् वहां कुल नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है। __यद्यपि यह सत्य है कि प्रकीर्णकों की संख्या एवं नामों को लेकर जैनाचार्यों में परस्पर मतभेद देखा जाता है। साथ ही आगमों की शृंखला में प्रकीर्णकों का स्थान भी द्वितीयक है, किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता
और अध्यात्म-प्रधान विषय-वस्तु की दृष्टि से विचार करें तो कई प्रकीर्णक, कुछ आगमों की अपेक्षा भी अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित आदि ऐसे प्रकीर्णक हैं, जो उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं। ऋषिभाषित की प्राचीनता और उसकी विषयवस्तु की विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए
थे।
वर्तमान में आगमों के अंग, उपांग, छेद, मूलसूत्र और प्रकीर्णक आदि विभाग किये जाते हैं। यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रथा
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / २४
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