Book Title: Jain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Author(s): Kameshwar Prasad
Publisher: Jain Vidyalaya Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 115
________________ और व्यंग्यक होते हैं। अपने नाट्याभिनय में अच्छों-अच्छों के झडूल्ये उतारने में बड़े दक्ष होते हैं। यजमानी में जरा सी चूक पड़ी कि ये किसी न किसी माध्यम से अपने रंग प्रदर्शन द्वारा उसकी अच्छी खासी मरम्मत कर देते हैं। यही कारण है कि बड़े लोग भवाई को अपने गांव में आया देख उसकी अच्छी खातिरदारी करते हैं और अच्छा नेगचार देकर बिना प्रदर्शन ही बिदा कर देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि यदि इन लोगों के हाथों वह चढ़ गया तो रात भर अपने खेल तमाशों में ये उसकी कलई खोलकर रख देंगे, जिससे उसका उस गांव में रहना ही भर हो जाएगा। ___ ऐसे भवाई लोगों का, कई नाचों में एक नाच था मटकों का, पर वह तो सोते हुए दोनों पांवों से मटके उठाकर सिर पर रखने की कठिन क्रिया थी। जब दयाराम ने कला मण्डल में पहली बार अपने सिर पर मटके रखकर नाच दिखाया तो कला मण्डल के संस्थापक देवीलाल सामर ने उसका नाम भवाई दे दिया और दयाराम को, जो जाति से भील था, भवाई कलाकार के रूप में प्रस्तुत करना प्रारंभ कर दिया। भवाई के रूप में कला मण्डल के मंच से दयाराम ऐसा चल निकला कि न केवल अपने देश में अपितु विदेशों में तो उसे और भी जादुई कलाकार के रूप में आश्चर्यजनित दृष्टि से देखा गया। खूब-खूब सराहा गया। इसका आलम यह रहा कि आज भवाई कलाकारों की बहार सब कहीं देखने को मिल रही है। इस भवाई में महिलाएं भी उतर आई हैं। स्कूलों में भी लड़के-लड़कियों की भवाई प्रस्तुतियां विशेष उत्सव-समारोह पर देखने को मिल जाती हैं। भवाई नाच को लेकर कई मण्डलियां ही खुल पड़ी हैं जो यत्र-तत्र मेलों, ठेलों तथा अन्य समारोहों में अपना कमाल दिखाती हैं। शोध छात्र और विद्वान् अध्येता जब भी मेरे पास भवाई से संबंधित जानकारी के लिए आते हैं तो मैं मुसीबत में पड़ जाता हूं कि उन्हें कौनसी शुद्ध जानकारी दूं। वह जो सब कहीं दिखाई दे रही है या वह जो हमारे ही अपने आंगन से हमने जारी की या वह जो वस्तुतः सही है और हमने उसे एक सीमा तक छिपी हुई कर रखी है। __ एक मजेदार बात घूमर को लेकर हुई। उदयपुर में पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र का मुख्य कार्यालय खोला गया। प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसके उद्घाटन को आने वाले थे। इस अवसर पर राजस्थान का घूमर नृत्य प्रस्तुत करने का कार्य मुझे सौंपा गया था। यहां की कुछ सांस्कृतिक संस्थाओं- भारतीय लोककला मण्डल, मीरां कला मंदिर और मीरां कन्या महाविद्यालय से घूमर नाचने वाली कलानेत्रियों का चयन कर उन्हें कई दिनों तक प्रशिक्षण दिया गया। यह ठेठ पारम्परिक घूमर नृत्य था, पारम्परिक गीत, पोशाक, गायकी तथा नृत्य अदायगी का। गणगौर पर किये जाने वाले इस नृत्य में मुख्यत: एक सौ आठ कलियों तक का घेर घुमेरदार घाघरा पहना जाता है और गज-गज भर तक का बूंघट रहता है, लेकिन आखिरी वक्त जब इसकी रिहर्सल पीछोला के किनारे गणगौर घाट पर की गई तो दिल्ली से, बड़ी राजधानी से हवाई जहाज में उड़कर आने वाली कोरियोग्राफर ने घूमर नाचने वाली सारी बाइयों के बूंघट ही हटवा दिये यह कहकर कि राजीवजी फिर देख ही क्या पायेंगे जब नाचनेवालियों के चेहरे ही ढके रहेंगे। __एक और घटना। इसी सांस्कृतिक केन्द्र द्वारा प्रांतीय राजधानी जयपुर में लोककला का एक बड़ा समारोह किया गया। इस समारोह के साथ लोककला संगोष्ठी भी हुई। समारोह में एक रात पाबूजी की पड़ का प्रदर्शन हुआ। मैं इस प्रदर्शन को देखकर बड़ा चकित हुआ। इस प्रस्तुति में पड़ का कोई चितराम नहीं था। भोपे बने कलाकार के हाथ में माइक थमा दिया गया जिसे लिये-लिये वह पूरे मंच पर भौंडे रूप में अपना गला फाड़-फाड़ तमाखुड़ी गीत गा गया। उसके साथ उसकी प्रियतमा बनी उसकी पत्नी थी जिसका उच्चारण ही शुद्ध नहीं था। इसी समारोह में दूसरे दिन घूमर का प्रदर्शन हुआ जिसमें वहीं के महाविद्यालय की चालीस लड़कियों को नचवा दिया। इन सबके केसरिया रंग की एक जैसी पोशाक पहनी हुई थी और सब बेधूंघट आधुनिकाएं बनी लग रही थीं, मुंह पर पाउडर थथेड़ा हुआ, होठों पर लिपस्टिक की परत जमाई हुई। संगोष्ठी में मैंने जब प्रसंगों के माध्यम से अपनी वाजिब बात कही तो सांस्कृतिक केन्द्र की डाइरेक्टर ही नहीं, कला-संस्कृति मंत्री भी बड़ी नाराज हुईं। कहने लगी कि संगोष्ठी में ऐसी बात नहीं करनी चाहिए थी। यहां यह उल्लेखनीय है कि इसी सांस्कृतिक केन्द्र का राज्य सरकार ने मुझे प्रोग्राम कमेटी का स्थापना काल से लेकर दो टर्म (6 वर्ष) तक के लिए सदस्य बनाया। इस दृष्टि से भी सांस्कृतिक केन्द्र से जुड़े लोगों को तो मेरी यह बात अच्छी लगनी चाहिए थी पर सबसे अधिक परेशानी उन्हीं लोगों को हुई जबकि अन्य जितने भी श्रोता तथा इस क्षेत्र के अध्येता-अनुसंधित्सु थे वे बराबर मेरे कथन पर दाद देते रहे पर मैने देखा, यह दाद अन्त में कइयों के लिए खुजली ही सिद्ध हुआ। (दाद का एक नाम खुजली भी है।) ___सन् 1967 में मैंने आदिवासी भीलों के अनुष्ठानिक नृत्य बहुप्रसिद्ध 'गवरी' को अपने अध्ययन का विषय बनाया। बड़ी मुश्किल से इस विषय का रजिस्ट्रेशन हुआ। बड़ी मुश्किल से गाइड महोदय को मनाया गया। शोध प्रबंध के परीक्षक हिन्दी के जाने माने समीक्षक थे। उन्होंने मौखिक में स्पष्ट कह दिया कि यह विषय तो निबंध का भी नहीं है परंतु शोधकर्ता को मैं काफी पढ़ता रहता हूं अत: उन्होंने कुछ नया लिखा होगा। इस बेरहमी और बेरुखाई से मुझे पी-एच.डी. प्राप्त हुई। आज तो वह गवरी पूरे देश में गूंज रही है। जगह-जगह उसे लेकर सेमीनार, संगोष्ठियां और राष्ट्रीय कार्यशालाएं तक आयोजित हो रही हैं। आधुनिक नाट्यकारों ने गवरी को लेकर बड़े प्रयोग भी किये लेकिन मुझे तकलीफ तब हुई जब हमारे ही हिन्दी दादाओं ने इस गवरी को अंग्रेजी में पढ़ा और अंग्रेजी से हिन्दी में उसका अनुवाद गवरी की बजाय 'गावदी' नाम से किया। उन्हें यह नहीं मालूम था कि 'गावदी' का अर्थ गवरी के ही अंचल में नासमझ, गंवार, बेवकूफ के रूप में होता है। यही स्थिति गवरी नाच के एक पात्र 'खेतुड़ी' के संबंध में हुई। हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270