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है। इन संझाइयाओं पर जब पहली बार मैंने आज से तीस वर्ष पूर्व लिखा तब विदेश के कई लोग आश्चर्यचकित हुए और इसके लिए भारत आये। हमारे देश के चित्रकारों ने भी सांझी चित्रों से प्ररणा लेकर बड़े अच्छे प्रयोग किये। संझ्या के दिनों में मैंने उन्हें मेवाड़ क्षेत्र के आदिवासी गांवों की सैर भी कराई।
लोककला संस्कृति के ये सारे के सारे पक्ष हमारे अध्ययन के लिए बहुत बड़ी जिज्ञासा, बहुत बड़ा स्रोत और एक नहीं नापा जाने वाला विस्तार देते हैं। जहां मनुष्य-मनुष्य के लिए लड़ता है और एक दूसरे की सभ्यता, संस्कृति और जिजीविषा को मटियामेट करने में अपनी सारी कलाबाजी और ज्ञान-विज्ञान के समग्र साधन-स्रोत लगाने की ललक लिये होता है वहां ये कला-सांस्कृतिक थातियां एक दूसरे से गले मिलती हुईं अपनी परम्पराओं का साम्राज्य, सत्व और समृद्धि का बखान करती फूली नही समाती हैं।
यह सही है कि एक अंचल विशेष की कलाओं ने दुनिया देखी है मगर यह भी गलत नहीं है कि ज्योंही उन्हें बाहर की हवा लगी, ये गड़बड़ा गई हैं। आजादी के बाद जो कुछ बदलाव आया उसका इन कलाओं पर बहुत असर पड़ा। इनके यजमान उठ गये। रहन-सहन, खानपान और जीवनयापन का जो एक सधाबधा स्वरूप था जब वही डोल गया तो उसके साथ जुड़ी इन कलाओं और कलाकारों का डोलना स्वाभाविक था। इससे कई कला-रूप बिना मौत मर से गये।
मेवाड़ का एक मात्र रासधारी खेल जिसमें राम का वनवासगमन नृत्याभिनीत होता था, सदैव के लिए समाप्त हो गया। भवाइयों का वह पारंपरिक कलाबाजियों वाला रात-रात भर चलने वाला चमत्कृत खेल अब भवाइयों के पास भी नहीं रहा। सामूहिक गान-नाच की सुंदर परंपरा भी गई। अब रेडियो और ट्रांजिस्टर और सिनेमा आ गये तो सारी संस्कृति विकृत होकर कैद हो गई। संस्कृति के नाम पर संकर संस्कृति ने जन्म लिया। टीवी ने तो इन्हें दूरदर्शन की बजाय क्रूर दर्शन ही दे दिया।
अपने अंचल से बाहर निकलने की हवाखोरी और नौकरी की तलाश पाते कलाकारों ने भी इन कलाओं पर कुठाराघात किया है। इससे उन कलाकारों में यह भावना स्वयं घर कर गई कि यह जो पारंपरिक रूप में नाचने गाने का काम उनके पिछड़ेपन का कारण बना है। फलत: यदि उन्हें अपने और अपने समाज का सुधार करना है तो इन्हें जल्द से जल्द छोड़ना है। कई कलावंत जातियों ने इसी भावना से प्रेरित हो अपनी इस पारंपरिक धरोहर से मुक्ति पाई।
बहुरूपी कला की भी यही स्थिति हुई। भीलों ने सामूहिक रूप से गवरी नाचना बंद करने का निर्णय भी इसी आधार पर लिया। कच्छीघोड़ी नाचने वाले, कावड़ बांचने वाले कावड़िया भाट भी अब देखने को नहीं मिलते। बगड़ावत की गाथा और देवनारायण की सम्पूर्ण पड़ गाने वाला अब कोई भोपा नहीं है। गांवों में ख्याल-तमाशे करने वाले कई सशक्त ख्यालदल भी टूट चुके हैं। चैनराम उस्ताद का अब अट्टालीवाला। मंचीय तुर्राकलंगी खेल देखने का नहीं मिलता।
इन कलाओं के पल्लवित और पुष्पित नहीं रहने का कारण यह भी रहा कि वे लकीर की फकीर ही बनी रहीं। उन्होंने हवा के रुख को जरा भी नहीं पहचाना और जमाने के अनुसार नहीं चलकर अपनी पुरानी ढपली ही अलापी। इसी कारण कठपुतली नचाने वाले भाट संख्या में कई होते हुए भी अपने ही हाथों पुतलियों के प्राण खोते रहे और उन्हीं पुतलियों और उन्हीं धागों के बल पर उसी अमरसिंह राठौड़ की पुतली नाटिका को लेकर भारतीय लोककला मंडल के कलाकारों ने बुखारेस्ट में कठपुतलियों के अंतर्राष्ट्रीय समारोह में पहला पुरस्कार प्राप्त कर सारी दुनियां को अचम्भे में डाल दिया। यह कोई जादू नहीं था मगर पुरानी चाल का नयापन था। __ कोई भी परम्परा यदि आज के संदर्भ में उपयोगी नहीं है तो वह अर्थहीन है और उसका चलन रहने वाला नहीं है। इन सारी लोककलाओं के पीछे भी यही दर्शन है। यदि हमें इन कलाओं, उनके विविध रूपों को जीवनोपयोगी और अर्थवान रखना है तो उन्हें वैसी की वैसी के रूप में स्वीकार करने का मोह छोड़ना होगा और जो कुछ बदलाव आ रहा है उससे चिंतित हुए बिना उसे खुशी-खुशी स्वीकार करना होगा। लोककलाओं के नैरन्तर्य के लिए यह आवश्यक भी है कि वे कुछ न कुछ नया ग्रहण करती रहें, उसे आत्मसात करती रहें। वे पारंपरिक भी लगें और नया जो कुछ है उससे भी वे विलग न रहें।
राजस्थानी लोककलाएं देश के अन्यान्य भूभागों से अधिक रंगीन, विविध और वैचित्र्यपूर्ण हैं, इसके लिए इस प्रांत को जो बड़ाई मिली वह उचित ही है।
आजादी के बाद जिधर देखो उधर, चारों खूट, लोककलाओं का विस्तार बढ़ा है। शरद पूर्णिमा की चांदनी जैसे सब तरफ टूटमान हुई फैल जाती है उसी तरह लोककलाएं सर्वलोक में व्याप्त होकर छिटक गई हैं। एक दृष्टि से तो यह ठीक हुआ। इससे लोककलाओं की पहचान बढ़ी। दायरे बढ़े। सांस्कृतिक मेल-मिलाप के सरोकार बढ़े। आंचलिकता पुष्ट हुई। एक छोटी दुनियां की खोह से निकल बड़ी दुनियां का समन्दर मिला। विभिन्न सभ्यताओं, संस्कृतियों और परम्पराओं का आश्चर्यजनक हेलमेल हुआ, किन्तु इससे इन कलाओं की जो स्वतंत्र अपनी वैयक्तिक पहचान थी, उसे जबर्दस्त धक्का लगा।। ___ इस धक्के को हर कोई नहीं पहचान पाया। यह धक्का उसी तरह
का है जैसे अपने घर गहरी नींद में सोया व्यक्ति अचानक स्वप्नवत् बिस्तर से उठ चल निकलता है। इस अचानक चल निकलने में वह एक प्रकार के धक्के का अनुभव करता है, जिससे सही-गलत का उसे कोई भान नहीं रहता है। ऐसी ही कुछ धक्कमपेल इन कलाओं के साथ देखी जाती रही है। __भवाई को लें। इस नाम से उस नृत्य की पहचान आती है जिसे सिर पर एक के ऊपर एक दस-बारह मटके रखकर नाचा जाता है। मूलत: भवाई एक जाति है जो अपनी कठिन क्रियाओं द्वारा बड़े रोचक संवादों में बड़ा सशक्त अनुरंजन देती है। इस जाति के कलाकार अपने-अपने यजमानों के लिए प्रदर्शन करते हैं। ये कलाकार बड़े विनोदी, वाचाल
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ३१
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