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को उतारना चाहता था। इसके कारण भी वे पुनरुत्थानवादी सोच और विचारधारा की ओर मुड़ गये। यह एक विडम्बना ही है कि उस समय का उदारवादी नेतृत्व तो विचारों में प्रगतिशील था लेकिन उग्रवादी नेता संकीर्णता को छोड़ नहीं पा रहे थे।
उदाहरण के लिए बाल गंगाधर तिलक ने हर तरह के समाज सुधार का, यहां तक कि बाल विवाह की प्रथा के खिलाफ वाले आंदोलन का भी विरोध किया। वह जाति की व्यवस्था में विश्वास रखते थे और उसकी वकालत भी करते थे। गांधीजी जिन्होंने छुआछूत के विरुद्ध आंदोलन चलाया और राष्ट्रीय साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में लाखों लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन में खींच लिया। उन्होंने भी 1921 में घोषणा की थी (1) मैं वेद, उपनिषद, पुराण, धर्मग्रन्थों, अवतारों तथा पुनर्जन्म में विश्वास रखता हूं। (2) मैं वर्णाश्रम धर्म में विश्वास रखता हूं। (3) मैं गोरक्षा में विश्वास करता हूं।
इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन के प्रारंभिक दौर में दोहरे चरित्रवाला बुद्धिजीवी वर्ग हमारे यहां था। वे एक ओर किसानों पर लगे सरकारी करों, भूमिकर तथा अन्य सरकारी कदमों का विरोध करने के लिये तैयार थे, दूसरी
ओर वे अपने कार्यक्रम में कृषि संबंधों का उल्लेख करने से कतराते थे। 1920 में कांग्रेस ने खुल्लम-खुल्ला बड़े-बड़े जमींदारों का पक्ष लिया। उदाहरण के लिए 18 फरवरी, 1922 के वारदोलोई फैसले में कहा गया, "वर्किंग कमेटी, कांग्रेस कार्यकर्ताओं और संगठनों को सलाह देती है कि वे रैयतों को समझा दें कि जमींदारों का लगान रोकना कांग्रेस के प्रस्तावों के खिलाफ है। जमींदारों को आश्वस्त करती है कि कांग्रेस का आंदोलन उनके वैध हितों पर हमला बोलने के कतई पक्ष में नहीं है।" विकसित देशों तथा नये पूंजीवादी स्वाधीन देशों में जहां पूंजीपतिवर्ग वपना वर्चस्व बनाये रखा है वहां उसने कृषि क्रान्ति को पूरा नहीं होने दिया। इसी वजह से उन देशों में पूर्व पूंजीवादी विचार धारायें और उनसे जुड़े संबंध बरकरार हैं आज भी पान इस्मालिज्म, इस्लामिक-गण राज्य, सीमित गणतन्त्र इत्यादि । इसी तरह की अनेक प्रतिक्रियावादी कबीलायी सामंती विचार लोगों के दिमागों में, उनके संस्कारों में कुण्डली मारकर बैठा है क्योंकि पूंजीवाद से पहले के जिन संबंधों से इन विचार धाराओं ने जन्म लिया था उनकी जमीन अभी तक उपजाऊ है। ___ सब कुछ के बावजूद जातियों का तेजी के साथ बिखराव हो रहा है। हर जाति के भीतर सम्पतिवान और सम्पतिहीनों के बीच विभाजन हो रहा है। कृषि में लगी लगभग हर जाति गरीबी बढ़ने की इस प्रक्रिया की शिकार हो रही है। इस तरह जातिगत भेदभावों के अस्तित्व के साथ-साथ शोषितवर्ग के रूपग्रहण करने की प्रक्रिया भी घटित हो रही
आजादी के बाद संविधान में समानता की बात की गयी लेकिन भूमि संबंधों का बुनियादी ढांचा जैसे का तैसा है। जमींदारी खत्म कर दी गयी लेकिन पुरानी बुनियादी असमानता का ढांचा आज भी बरकरार है। भूमि संबंधी कानून एक मजाक बनकर रह गया अर्थात् वर्तमान शासक वर्ग उसी पुराने आर्थिक ढांचे को कायम रखने में लगा है।
जातिवाद की भयावहता इसके उत्पीड़न तथा इससे उत्पीड़ित लोगों के दिमाग में अपने प्रति होने वाले अन्याय का अहसास तो है लेकिन जो लोग बेहतर स्थिति में है वे अपने से बदतर वाले लोगों के प्रति होने वाले रोजमर्रा के अन्याय को दूर करने के लिए तत्पर नहीं हैं। जाहिर है कि अगर किसी प्रतिक्रियावादी विचारधारा के खिलाफ संघर्ष लगातार न चलाया जाय तो वह बदलाव तथा प्रगति की राह में बाधक बनती है। अतः इस विचार धारात्मक संघर्ष को, भूमि संबंधों सहित वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने के साथ जोड़ना होगा। आरक्षण समर्थन तथा आरक्षण विरोधी आन्दोलन, एक जाति का दूसरी जाति से सशस्त्र संघर्ष पूंजीपति भूस्वामी वर्ग की वर्गीय स्थिति को और मजबूत कर रहा है। अतएव जाति व्यवस्था के खात्मे का सवाल पूंजीपति भूस्वामी वर्ग के खात्मे और समाजवाद की दिशा में संघर्ष करने के सवाल से जुड़ा है।
कुछ बुद्धिजीवी इतिहास की व्याख्या के सिलसिले में यह धारणा रखते हैं कि इतिहास संबंधी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण का आविर्भाव मध्ययुगीन अर्थात् मुस्लिम युग से हुआ। वास्तविकता तो यह है कि सम्पूर्ण भारत का इतिहास साम्प्रदायिकता से ओतप्रोत है। यह स्थापना कि प्राचीन भारत, मुसलमानों के आने के बाद साम्प्रदायिक उत्तेजना में फंसा, विदेशी आक्रमणों का शिकार हुआ और हिन्दू साम्प्रदायिक बुद्धिजीवियों के साथ-साथ मुसलमान साम्प्रदायिक बुद्धिजीवी भी इसी तरह का तर्क प्रस्तुत करते हैं। 18वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी तक तीन तरह की विचारधाराओं का संघर्ष इतिहास की व्याख्या में मिलता है (1) प्राच्य विद्याविद् (2) उपयोगितावादी (3) राष्ट्रीयतावादी। संस्कृति के अध्ययन के साथ-साथ इण्डोयूरोपियन संस्कृत (भाषा) और यूनानी संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन शुरू हुआ। आर्यों की विशेषता जाति के रूप में स्थापित की गयी जिसके बारे में मैं विस्तार से लिख चुका हूं। एक सबसे घातक साम्प्रदायिक इतिहास की दृष्टि से जो किया गया वह इतिहास का काल विभाजन हिन्दू काल, मुस्लिम काल तथा आधुनिक काल में किया गया। क्या जेम्समिल द्वारा लिखे गये इतिहास में वंशगत इतिहास के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक दशा की व्याख्या को छोड़ नहीं दिया गया? प्राचीन काल में विशेष कर जिसे हिन्दू काल कहा जाता है उसमें मौर्यवंश, इण्डोयूनानी, शाक्य, कुषाण इत्यादि बहुत से राजवंश हुए। उनमें से बहुत से तो जैन एवं बौद्ध धर्म के अनुयायी थे जो अपने को हिन्दू नहीं कहते थे। इसलिए इतिहास के विभाजन में हिन्दू शब्द जोड़ना न्याय संगत नहीं। हिन्दु शब्द का तो सबसे पहले अरबों ने प्रयोग किया।
यह भी एक आश्चर्यजनक बात है कि हम अरब, तुर्क, पारसियों को मुस्लिम कहते हैं। तेरहवीं शताब्दी तक मुस्लिम शब्द कहीं-कहीं
ब्रिटिश शासकों ने मुसलमानों, पिछड़े समुदायों और अछूतों को पृथक निर्वाचन क्षेत्र सरकारी नौकरियों में आरक्षण तथा शिक्षा संबंधी सुविधाएं देकर राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग संघर्ष और एकता की योजना को असफल बनाने की कोशिश की। उनका उद्देश्य था पिछड़ी जातियों में उन्नति की उम्मीद जगाना, उन्हें आम संघर्ष से अलग रखना, पृथक जातियों तथा साम्प्रदायिकता की भावना को बनाये रखना।
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ५५
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