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हिन्दू और मुसलमानों के दो पृथक राष्ट्र होने चाहिए। इसका उपयोग साम्राज्यवादियों ने पाकिस्तान के निर्माण का औचित्य सिद्ध करने के लिए किया। इस तरह कल्पना प्रसूत औचित्यों की तलाश में वर्तमान को अतीत पर आरोपित कर पूरी की पूरी पीढ़ी को गुमराह किया गया। इतिहासकारों ने भारत के अतीत के संबंध में कुछ ऐसे दृष्टिकोण और सिद्धांत प्रस्तुत किये जो उत्तरोत्तर अधिकाधिक अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। हमें आज औपनिवेशिक युग के इतिहास लेखन के वितण्डावादी दृष्टिकोणों से मुक्त होने की जरूरत है। अपनी संस्कृति और इतिहास का निष्पक्ष और आलोचनात्मक मूल्यांकन करने का आत्मविश्वास आना चाहिए। आखिर अतीत का यह कैसा बिम्ब प्रस्तुत किया गया जिसने भारतीयों तथा विदेशियों, दोनों के मन में गहरे पूर्वाग्रहों को जन्म दिया। यह आम धारणा आज भी विद्यमान है कि भारतीय तो अपने इतिहास से विमुख थे, वे अपने इतिहास का कोई प्रलेख सुरक्षित नहीं रखते थे।
भारत के अतीत का अनुसंधान अंग्रेज शासकों के तत्वावधान में आरम्भ हुआ। सम्पूर्ण भारतीय अतीत की समझदारी के संदर्भ में बहुत बड़ा अन्तर विरोध यह है कि जेम्समिल जैसे इतिहासकारों ने और विशेष करके ईसाई धर्म के प्रचारकों ने यह प्रतिपादित किया कि भारत के अतीत की संस्कृति में बुद्धिवाद के तत्व नहीं मिलते, उनकी कोई विधि प्रणाली भी नहीं थी। भारतीय अतीत का समाज गति शून्य था। इस विश्लेषण ने ब्रिटिश शासकों को बड़ी मदद दी और उन्होंने यह दावा किया कि भारतीय समाज को बदलने के लिए उन्हीं का बुद्धिवादी कानून उपयोगी है। उनके हिसाब से प्राचीन भारत में केवल निरंकुशता का बोलबाला था। इस तरह प्राच्य निरंकुशता पर जोर देकर साम्राज्यवादियों ने इसका अपने ढंग से उपयोग किया। गौर करने की बात है कि जेम्समिल की लिखी हुई 'हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया' नामक पुस्तक से लिखबरी कालेज की पाठ्य पुस्तक बनी जहां भारत भेजे जाने वाले सिविल अधिकारी प्रशिक्षण पाते थे। भारतीय इतिहास की ऐसी व्याख्याएं पिछले दो सौ वर्षों से की जा रही हैं। यूरोप में राष्ट्रवाद की जो लहर उठी उसके फलस्वरूप यूरोप के अतीत को एक नयी दृष्टि से देखा जाने लगा, लेकिन जिन लोगों ने एशिया और अफ्रीका में नये उपनिवेश बसाये, उन्होंने भारतीय इतिहास की व्याख्या में राष्ट्रवादी दृष्टि को ताक पर रख दिया और ऐसे विचारों का प्रतिपादन किया जो भारतीय इतिहास तथा संस्कृति से संबंधित बद्ध मूल धारणाओं में परिवर्तित हो गये और यही धारणायें साम्राज्यवाद की आवश्यकताओं के लिए उपयोगी बनीं। ___ जाहिर है कि आर्थिक साम्राज्यवाद का प्रतिरूप आज भी सांस्कृतिक प्रभुत्व में समाया हुआ है। इतिहास के विकास की पद्धतियों के बारे में और इतिहास के नियमों की जिन्हें जानकारी है, वे जानते हैं कि समाज पर, उसके विकास पद्धति पर राजकीय अधिसंरचना का प्रभुत्व होता है यद्यपि उसका आधार आर्थिक ढांचा होता है। इस अधिसरंचनात्मक संस्थाओं में मरणासन्न तथा नवीन दोनों तरह की पद्धतियों की, सामाजिक संस्थाएं उसके भीतर अवयंव के रूप में शामिल रहती हैं। लम्बे दौर तक उनका सह कायम रहता है और वे एक-दूसरे पर गहरा प्रभाव
डालती हैं। वर्तमान ऐतिहासिक स्थिति में सामाजिक संघर्षों पर जब नयी परिवर्तित परिस्थितियां हस्तक्षेप कर रही हैं तो परम्परागत धार्मिक चेतना नवोदित प्रक्रियाओं और प्रवृत्तियों के विरुद्ध रूढ़िवादी प्रतिक्रिया का आधार बन रही है। आज उत्पादक शक्तियों, उत्पादन संबंधों, सामाजिक संस्थाओं, विचार-धारात्मक धारणाओं तथा सांस्कृतिक मूल्यों के क्षेत्र में संकट के लक्षणों का संचय हो रहा है। यह असंतुलन जहां इतिहास की नयी गति की ओर इंगित कर रहा है वहीं यह विभिन्न प्रकार की विकृतियों को भी पैदा कर रहा है। उदाहरण के लिए उन्हीं इतिहासकारों ने इस बात पर जोर दिया कि भारत का प्राचीन समाज एक आदर्श समाज था, इसमें सर्वत्र मेलजोल का वातावरण था यानी वहां किसी प्रकार का द्वन्द्व नहीं था, क्योंकि भारत के लोग तो आध्यात्मिकता की ओर ज्यादा उन्मुख थे और वे भौतिकवाद की ओर ज्यादा झुकाव नहीं रखते थे। इस मान्यता से आज सांस्कृतिक पुनरुत्थान को धार्मिक पुनरुत्थान से जोड़ दिया है और इसने तथाकथित हिन्दुत्व की रूढ़िवादी पुनशक्ति की पुनर्प्रतिष्ठा संभव करने की एक भूमिका बनायी जो आज आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिरोध पैदा कर रहा है, भौतिक और आध्यात्मिक आधार पर पश्चिमी और पूर्वी सभ्यता को बांटने का यह अपराध आज भी एक ऐसी मानसिकता को जन्म दे रहा है, जिसमें लोग फंस कर मशीन के ही विरोधी हो गये।
उदाहरण के लिये आर्य और अनार्य का भेद और उसके दुष्परिणाम पर यदि गौर किया जाय तो एक नकली वैज्ञानिक सिद्धांतों के जन्म का उद्भव पाते हैं। उपनिवेशवादी व पृथकतावादी प्रवृत्तियों को उत्तेजना देते हैं और उपनिवेश में यह उत्तेजना हर गुट को अपनी संस्कृति के पृथक मूल की तलाश की ओर ले जाती है और ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं कि राष्ट्रीय संस्कृति की परिभाषा और प्रवृत्ति विछिन्नतावाद, अलगाववाद तथा आंचलिकतावाद को जन्म देता है। हिन्दू-मुस्लिम तनाव का कारण बताने और उस तनाव को उचित ठहराने के लिए यह धारणायें आज भी भारतीय समाज को खंड-खंड करने में लगी
हैं।
मेरी समझ से आर्य जाति विषयक धारणा को भारतीय परम्परा से जोड़ना अनुचित है। प्रारम्भिक साहित्य में आर्यों का उल्लेख बार-बार मिलता है, लेकिन इस शब्द का प्रयोग या तो विशेष समादृत व्यक्ति के रूप में या म्लेच्छ अथवा अनार्य से भिन्न अर्थ में हुआ है। भिन्नता का आधार भाषा, मुखाकृति या धार्मिक पूजन है। आर्यों को पृथक सांस्कृतिक समुदाय तो माना गया है लेकिन अलग जाति के रूप में नहीं। अतीत के साक्ष्य जैसे बोधायन, जैन ग्रन्थ भगवती सूत्र, महावग्म् नामक बौद्ध ग्रन्थ में आर्यावर्त की अलग-अलग परिभाषा की गई है। अर्थात् अमुक समुदाय के स्रोत किस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं और उस संस्कृति का मुख्य केन्द्र कहां था। उत्तर वैदिक ग्रन्थों में आर्यावर्त का उल्लेख मुख्यत: गंगा-यमुना-द्वाबा और उसके सीमावर्ती क्षेत्रों के अर्थ में हुआ है। इस सीमा से बाहर के क्षेत्रों का उल्लेख सामान्यत: म्लेच्छ देश के रूप में हुआ है। यह मापदण्ड प्रजाति का नहीं है, जाहिर है कि वैज्ञानिक और लोक प्रचलित दोनों अर्थों में प्रजाति की परिकल्पना
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / ५३
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