________________
डॉ0 महेन्द्र भानावत
पारम्परिक लोककलाएँ और
उनका आजादीकरण
लगा है कि सारा वातावरण हक्काबक्का-सा हो गया है। संक्रमण की यह स्थिति कहीं-कहीं अतिक्रमण तक पहुंच गई है। ___ कई कलाविधाएं अपना ऐसा हुलिया कर गई कि वे अब पहचानी ही नहीं जा रही हैं। कुछ का तो अपहरण और कइयों का मरण हो गया है। कई नकलची असलची बन बैठे और जो असली हैं उनके भाव भंगड़े के भी नहीं रहे हैं। कुछ अच्छे कलाकारों को मान-सम्मान
और पुरस्कार का भभका देकर उन्हें अपनी जमीन से भी तोड़ दिया गया। कुछ जो वस्तुत: मान-सम्मान के योग्य थे उन्हें वह योग्यता नहीं मिलने से उनका दिल मर गया और एक अजीब दर्द बढ़ गया है। बहुत से एजेन्ट, दलाल इन कलाओं के उन्नायक, उद्धारक बनकर प्रकट हुए, जिन्होंने कलाओं का तो हलाल ही अधिक किया बल्कि अपना उद्धार कर कलाकारों और उनकी कलाओं को उल्टा बदरंग कर दिया।
अपने ही अंचल में पूरा नहीं चल पानेवाला कलाकार रेत को भी परस नहीं कर जब हवाई जहाज में उड़कर अपने राष्ट्र को छोड़ दूसरे राष्ट्रों में चला गया तो उसका जीव रोटले और राबड़ी के बिना मचमचियाने लगा और उसकी कला देख सुन अपने लोगों से जो मन-तन का मोद मिलता था, वह उसे नहीं मिला पर जो कुछ मिला उसका चस्का भी एक ऐसी लार दे गया कि उसे उसकी जमीन और उसका जीवन ही टाटपटा सा दिखाई देने लगा।
जो कलाकार चलन में आ गये वे चांदी तो पा रहे हैं पर उनकी कला सोने से पीतल-कथीर हुई जा रही है। इन्हीं कलाकारों से जब मैं पूछता हूं कि अपने पीछे किसी को वे तैयार भी कर रहे हैं? तो वे बोलते हैं- “अब कोई दम नहीं रहा है।" कई कलाकार सामंती युग को ही याद कर सिसकियां भरते हैं। कहते हैं- "तब अदब इज्जत से हमारी कलाओं को देखा-सुना जाता था। मूल भावना तो यह है कि अब कोई असली कला समझने वाला भी नहीं रहा और यदि हम आज की समझ माफिक अपने को बनालें ता कला का कूडा ही हो जाय।"
सामूहिक गान और नृत्य के वे जमाने जैसे लद से गए हैं। तब समूह में भी प्रत्येक कलाकार अपने को प्रगटाता हुआ समग्र माहौल को एक अजीब और अद्भुत आनन्द देता था। कोई कलाकार कोई गीत पंक्ति गाता तो दूसरा उसी पंक्ति को पकड़ अपना कुछ मिलाता। तीसरा उसे और निराला स्वर देता। फिर पहला और दूसरा और तीसरा उसे पकड़ता हुआ अपना ओज और माधुर्य और ठसक और अंग अभिनय देता रहता। और इस तरह उनकी बारी-बारी में गीत को जो रंग मिलता वह देखते ही बनता था। अब जैसे चीराफाड़ी कर दी गई है। हर चीज ऐसी बना दी गई है कि जैसे उसका मोण तो निकाल दिया गया है
और उस पर अट्यावण ही अट्यावण लथेड़ दिया गया है। विदेशी लोगों ने यहां आकर इन कलाओं और कलाकारों के साथ मिल बैठकर धन आदि का लालच दे उनमें कई रूपों की विकृति को जन्म दिया। इससे यहां के कला अध्येता भी उनकी तुलना में अधिक खर्च नहीं
सब कलाओं में लोककलाएं आजकल बड़ी चर्चा का विषय बनी हुई हैं। कोई भी सभा, समारोह, उत्सव हो उसका लोककलात्मक रूप-रंग आवश्यक हो जाता है। बोलीचाली, पहनावा, खानपान, लेखन, सजा सबके सब लोकपन से प्रगाढ़ हो रहे हैं। लोकमान, लोकरंग, लोकमानस, लोकचर्चा, लोकार्पण, लोकोत्सव, लोकाभिनंदन, लोकधन, लोकमन, लोकनीति, लोकगायक, लोककला, लोकशिक्षण, लोकगीत, लोकसंस्कृति, लोकधर्म जैसे तीसों-पचासों शब्द वजनी बने हैं। साहित्य के इतिहास में यह पक्ष जितना नकारा गया उतना ही अब जुड़कर साहित्य । और इतिहास और अन्य विषयों को श्री प्रदान कर रहा है। लोकश्री । और कलाश्री की तूती अब चहुंओर बोली जा रही है। __ यह शुभ लक्षण है कि लोककलाएं जो अब तक अपने ही अंचल की सीमा और शोभा बनी हुई थीं, अब उनका विस्तार हुआ है। वे अपनी देहरी से देश-देशांतर में छलांगी हैं। उनकी आंचलिक गंध-सुगंध में कई तरह की हवाएं आ मिली हैं पर इससे कई खतरे भी खड़े हो गये हैं। जो जमीन इनको जकड़ी हुई थी उसकी जड़ें अब जर्जरायमान हुई जा रही हैं। एक ठहराव, अलगाव और टूट की अजीब स्थिति ने ऐसे संक्रमण को जन्म दे दिया है, जिससे लोककलाओं के विविध रूप आपाधापा गये हैं। इन कलाओं के साथ जो अनुष्ठान, आस्थाएं, उत्सव और यजमान आजीविका से जुड़े हुए थे, उन्हें सहसा ऐसा धक्का
हीरक जयन्ती स्मारिका
विद्वत् खण्ड / २७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org