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जैनतत्त्वमीमांसा प्ररूपणामें उसका सुतरां निषेध होता जाता है। इस पर से यह फलित
करना कि देवपूजा आदिका निषेध किया जा रहा है, मिथ्या है, । क्योकि जब चरणानुयोगकी प्ररूपणा हो तब ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न
गृहस्थ या मुनिकी कैसी बाह्य मन-वचन-कार्यको प्रवृत्ति होनी चाहिये इसकी प्रांजलपने प्ररूपणा की जाय । एक अनुयोगकी कथनीमें दूसरे अनुयोगकी कथनीका मिश्रण नहीं किया जाय । साथ ही प्रवचनके समय यह ध्यान रखा जाय कि शास्त्रगद्दीको वीतराग गद्दी समझ कर जिस अनुयोगके शास्त्रका स्वाध्याय हो उसीके आधारसे प्रकरण और गाथाश्लोक आदिको माय्यम बनाकर प्रवचन किया जाय । प्रवचनके समय निन्दा-स्तुतिपरक लौकिक कथा बिल्कुल नही को जाय और न ही स्वाध्याय के समय शास्त्रका आधार छोडकर व्याख्यानबाजी ही की जाय । स्वाध्यायका तात्पर्य भी यही है कि प्ररूपणाके समय जो आधार हमारे सामने हो उसी पर शास्त्रानुसार विशद विवेचन किया जाय । इसीका नाम ज्ञानविनय है। इस तथ्य पर सर्वोपरि ध्यान रखा जाना चाहिये।
Awaay.
जैसा कि हम पहले लिख आये है कि जैनतत्त्वमीमासाका प्रथम संस्करण सन् १९६० के उत्तगर्धमे प्रकाशित हुआ था। उसके प्रकाशित होनेके बाद माप्ताहिक पत्रो द्वाग तो उसे अपनी टीकाका विषय बनाया ही गया। उसके विरोवमें अनेक पुस्तके भी लिखी गई। उनमेंसे कुछ पुस्तको को मैने अन्त तक देखा है। उन द्वारा जैनदर्शनकी जो गति की गई है उससे मै हैरान हूँ । जनदर्शनकी समस्त तत्त्वप्ररूपणा व्यक्ति स्वातन्त्र्य और स्वावलम्बनके आधार पर हुई है। उसमें निश्चयनय और व्यवहारनय तथा उनके यथासम्भव उत्तर भेदोंकी लक्षणमीमांसा भी इसी आधार पर की गई है। उससे प्रत्येक वस्तु अपने यथार्थ स्वातन्त्र्यको कायम रखते हए कैसे पराश्रित बनती है या बनी हुई है इसका स्पष्टत. भान हो जाता है । पराश्रितपनेका अर्थ जीवकी स्वरूपसे 'पगधीनता नहीं है, किन्तु उमका अर्थ परकी ओर अपने अनादि अज्ञानभाव और गगभावसे झुकाव है) जैनतत्त्वमीमांसाकी आलोचना करनेवाले महाशय यदि इस तथ्यको ध्यानमे रखकर लिखते तो सम्भव था कि वे अध्यात्मका अपलाप किये बिना ही व्यवहार पक्षको सम्यक प्रकारसे रखने में समर्थ होते ।
किन्तु वे इसे रखने में कैसे असमर्थ रहे इस तथ्यको इमीसे समझा