Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 10
________________ जैनतत्वमीमांसा इस प्रकार तीसरे दौरकी प्रतिशंका सामगीके प्राप्त होनेपर हमारे सामने अवश्य ही यह सवाल रहा है कि हम इसे स्वीकार कर उसके आधारपर प्रत्युत्तर तैयार करें या नियम विरुद्ध इस लिखित सामग्रीके प्राप्त होनेसे हम उसे वापिस कर दें। अन्त में काफी विचार विनिमयके बाद यही सोचा गया कि भले ही यह लिखित सामग्री नियम विरुद्ध प्राप्त हुई हो. उसके प्रत्युत्तर तैयार करना ही प्रकृतमें उपयोगी है। और इस प्रकार प्रत्यत्तर तैयार होनेपर नियमानुसार हमारे पक्षके तीनों प्रतिनिधियोंने उसका वाचन किया। तथा वाचन पूरा होनेपर तीनों प्रतिनिधि विद्वानोंने हस्ताक्षर किये और मध्यस्थकी मार्फत भिजा दिया गया। उन नियमोंमें यह व्यवस्था भी थी कि दोनों ओरको लिखित पूरी सामग्री तैयार होनेपर वह दोनों ओरसे साधन जुटाकर मुद्रित करा दी जायगी। किन्तु पर्याप्त लिखा-पढी करनेपर भी वह पक्ष छपानेके लिये तैयार नहीं हुआ। इसलिये लाचार होकर यथावत्रूपमें उसे आ० क० ५० टोडरमल ग्रन्यमालासे छपाने की व्यवस्था की गई। हाँ दोनों पक्षने एकदूसरेके लिये कहीं-कहीं कड़े शब्दोंका जो प्रयोग किया था वे निकाल दिये जाय यह अनुरोध शान्तस्वभावी निष्ठावान् कार्यकर्ता प० श्री माणिकचन्दजी चवरेने लिखितरूपमें किया था। इसकी सूचना दूसरे पक्षको दी गई। पर वह इसके लिये तैयार नहीं हुआ। हमारी ओरसे अवश्य ही ऐसे शब्द अलग कर दिये गये और अलग किये हुए शब्दोकी सूची उस पक्षके पास भेज दी गई। उस पक्षने उसपर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही की, इसलिये उसे अन्तिमरूप दे दिया गया। अर्थात् हमारे पक्षकी तीनों दौरकी उत्तर-प्रत्युत्तर सामगीमेसे कठोर शब्द अलग कर दिये गये। इस प्रसंगमें उस पक्षके प्रतिनिधि एक वयोवृद्ध विद्वान्के द्वारा किया गया यह आक्षेप सुनने में आया था कि मुद्रणके समय मैंने उसमें फेर-फार कर दिया है। किन्तु इस सम्बन्धमें प्रथम तो मेरा यह कहना है कि जिन विद्वान् महोदय ने यह आक्षेप किया है उन्होंने तीसरे दौरकी लिखित प्रतिशंका सामग्रो पर स्वय हस्ताक्षर न कर एक तो उसके उत्तरदायित्वसे अपनेको बरी रखा है और दूसरी ओर सार्वजनिकरूपसे ऐसा भ्रम फैलानेके लिये उपक्रम भी करते रहते हैं इसका हमें आश्चर्य है। फिर भी इस आक्षेपके उत्तरस्वरूप सार्वजनिक रूपसे मै यह स्पष्ट

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