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कल्प-सूत्रगत स्थविरावली के अनुसार देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के समय तक इस तीर्थ में ८ गण, २७ कुल और ४५ शाखाओं का प्रचलन था और इनके अधिकारी/शासक/व्यवस्थापक वर्ग को क्रमशः गणधर, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणि और गणादच्छेदक पदों से संबोधित किया गया है।
वर्तमान समय में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज में जो भी खरतरगच्छ, तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि गच्छों के नाम से प्रचलित/प्रसिद्ध है, वे सब कोटिक गण, चन्द्रकुल और वज्रशाखा के अन्तर्गत आते हैं और खरतर, तपा आदि 'बिरुद/उपाधि' के धारक हैं। वस्तुतः ये पृथक्-पृथक् गच्छ नहीं है। उनका तो सुस्थितसूरि का कोटिक गण, चन्द्रसूरि का चन्द्रकुल एवं आर्यवज्र से निसृत वज्रशाखा ही गण, कुल एवं शाखा है। ये बिरुद तो उन उन आचार्यों की उत्कृष्ट संयम-साधना को देखकर तत्कालीन नरेशों ने प्रदान किये थे अथवा उनके विशिष्ट गुणों या क्रिया-कलापों से उनकी परम्परा उक्त बिरुदों से प्रसिद्ध हुई थी। (निष्कर्ष यह है कि वर्तमान के समस्त गच्छ ही उन्हीं आचार्य की संतानें हैं और इन सबका एक ही गण है और वह है, कोटिक गण।)
अधुना गच्छों के व्यवस्थापक नेता भी आचार्य, महोपाध्याय, उपाध्याय स्थविर, प्रवर्तक, पन्यास एवं गणि पद को सुशोभित करते हैं। महिला-श्रमणी वर्ग में सुसंचालिका अधिकारिणी पूर्वकाल के समान ही आज भी ‘महत्तरा, प्रवर्तिणी, स्थविरा और गणिनी' पद को विभूषित करने वाली होती है। गण शब्द का अर्थ - गण शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए पाइयसद्दमहण्णवो में लिखा गया है कि
गण पुं [गण] १ समूह, समुदाय, यूथ, थोक; (जी ३४; कुमा; प्रासू ४; ७५; १५१)। २ गच्छ, समान आचार व्यवहार वाले साधुओं का समूह; (कप्प)।
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