Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख-संग्रह अ. २. · 'लत्य धी [तु] F धु' वेणि व. २ · श्रेष्टि त्य] धर्मपत्निये भट्टिासेनस्य स. २. [मातु] कुमरमितयो दन भगवतो प्रि] ." द २ मा सव्वतोभद्रिका [1] ___ अनुवाद-[सफलता हो।] १५वें वर्षकी ग्रीष्म ऋतुके तीसरे महीने के पहले दिन, भगवानकी एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमाको कुमरमिता (कुमारमित्रा) ने [ मेहिक ] कुलके अर्यजयभूतिकी शिष्या अर्य सङ्गमिकाकी शिप्या भयं वसुलाके आटेशसे समर्पित की । कुमारमित्रा"लकी पुनी," की बहू (वधू), श्रेष्ठी वेणीकी धर्मपत्नी और भहिसेनकी माँ थी।
__ [El, 1, n° XLIII, No 2]
मथुरा-प्राकृत ।
[हुविष्क?] वर्ष १८ अ. स १० ८ गृ ४ दि ३ [अस्या पु]-[य] [या ] तो गण [तो] ब सभोगातो वच्छलियातो कुलातो गणि द १ वासि जयस्य-तु मासिगिये [१] दान सर्चत [ो भ
२. - [ सर्वस ] वा [ न ] सुखाय भवतु ।
अनुवाद-वर्ष १८ ग्रीष्मऋतुका ४ था महीना, तीसरे दिनके अवसर पर, [कोहि ] य गण,"संभोग, वच्छलिय (वात्सलीय) कुलके गणि...
के आदेशसे जयकी (माता) मासिगिका दान एक सर्वतोभद्र [प्रतिमा] के रूपमें किया गया ।
[E, II, n° XIV, 113] १ वधु' पढो। २ इसे 'कुमारमितये' पढ़ना चाहिये ।