Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 26
________________ जैन साहित्य संशोधक। [ भाग १ अपने अंदर सामिलकर पूर्ववत् उनका सत्कार किया। रिने 'सम्मतिप्रकरण' पर २५ हजार श्लोक प्रमाण इस किम्बदन्तीमें कितना तथ्यांश है उसका विचार विस्तृत और प्रौढ टीका बना कर, शान्त्याचार्य और हम यहां परनहीं करना चाहते, केवल इतना कह देना जिनेश्वरसूरिने 'न्यायावतार' के सटीक वार्तिक चाहते हैं कि इस रूपकमें कुछ न कुछ ऐतिहासिक रच कर, सिद्धसेनसूरिके, जैनतर्कशास्त्र विषयक सत्य गर्भित अवश्य है। ऊपर जो हमने थोडासा इनके सूत्रधारत्वका सगौरव समर्थन किया है। प्रचण्ड ताविवार-स्वातंव्य और स्प-भाषित्वका परिचय दिया है, किवादी देवसरिने उन्हें अपना मार्गदर्शक बतलाया उससे यह जाना जा सकता है कि, यदि जैनागमोंके है; और सर्वतंत्रस्वतंत्र आचार्य हेमचंद्रने उनकी कृतिसम्बन्धमें इन्होंने ऐसी कोई बात श्रमणसंघके सामने योंके सामने अपनी विद्वन्मनोरंजक कृतियों को भी प्रदर्शित की हो अथवा कृतिरूपसे उपस्थित कर दी 'अशिक्षितालापकला' वाली बतलाई हैं। हो कि जितसे पुराणप्रिय और आगमप्रवण श्रमण- * * वर्गको बडा असंतोष हुआ हो, तो, उसमें कोई असं- जिस तरह श्वेताम्बर संप्रदायके प्रसिद्ध आचाभवता नहीं है। योने सिद्धसेन दिवाकरकी प्रशंसा की है वैसे दिग- तत्कालीन श्रमणसंघमें अथवा कुछ काल तक पीछे म्बर संप्रदायक सरिवरोंने भी उनके विषयमें स्तुतिभी आगमाभ्यासी सैद्धान्तिकोंमें सिद्धसेनसूरिके प्रति परक उद्गार प्रकट कर, समुचित गौरव किया है। आदरभाव अल्परूपमें भले ही जागृत रहा हो; परंतु हरिवंश पुराणके कर्ता महाकवि जिनसेन सूर्ति परवादियोंके किये जानेवाले प्रचण्ड आक्रमणसे (प्रथम) ने, अपने पुराण-रूप महाकाव्य की प्रस्ताजैनशासनकी रक्षा करनेके लिये प्रमाण और नय- वनामें समन्तभद्रादि बडे बडे प्रभावक आचार्यों का वादके प्रबलयुक्तिपूर्ण सिद्धान्तोंकी स्थापनारूप स्मरणीय उल्लेख करते हुए सिद्धसेनसूरिका भीजिस दुर्गम-दुर्गके मूलको वे दृढ बना गये, इस उनकी सक्तियों की प्रशंसा द्वारा-सादर स्मरण लिये उनके अनुगामी और पश्चाद्वर्ती सब ही समर्थ किया है। यथा-- जैन विद्वानोंने उनका बड़े गौरवके साथ स्मरण राजोखर सरिका बनाया हुआ संक्षिप्त 'टिप्पनक' भी हे' किया है। महातार्किक आचार्य मल्लवादीने सम्मति १इस टीकाका थोडासा प्रारीभक भाग काशीकी प्रकरण उपर टीका लिख कर उनके प्रति अपनी 'यशोविजयनग्रन्थमाला' में प्रकाशित हुआ है। संपूर्ण उत्तम भक्ति प्रकट की। जैनधर्मके अनन्यसाधारण ग्रंथ अभीतक नहीं छपा। . . और अप्रतिम तत्वज्ञ आचार्य हरिभद्रने तो उन्हें २ जिनेश्वररिके वार्तिकका नाम 'प्रमालक्षण साक्षात् 'श्रुतकेवली' लिख कर उनका अनुपम आदर है और वह केवल न्यायावतार सूत्रके आदिम श्लोकका किया धात महात्मासिंद्धापन न्यायावतार विस्तार स्वरूप है। इस ग्रन्थके विषय विशेष जाननेक तार स्वरूप ह। इस ग्रन्थक विषयमविशष जाननक लिये, देखो जनहितैषीमासिक पत्र के भाग १२, संख्या १,में ऊपर व्याख्या लिख कर, तर्कपश्चानन अभयदेवसू- " : मुद्रित हमारा 'प्रमालक्षण' शीर्षक लेख । यह ग्रंथ अमदाबा. १यह टीका अभीतक कहीं उपलब्ध नहीं हुई है। दके सेठ मनसुखभाई भगुभाई ने छपवा कर प्रकट किया है। ४-५ सौ वर्ष पहले की बनी हुई एक ग्रन्थसूचि हमारे पास ३शान्त्याचार्यका वार्तिक भी जिनेश्वर सूरिके वार्तिक है उसमें इस टीकाका नाम लिखा हुआ मौजूद है। की तरह न्यायावतारके प्रथम श्लोककी व्याख्यारूप २ देखो, 'पञ्चवस्तु' ग्रन्थका निम्न लिखित गाथा-युगल है। इसका नाम 'प्रमाण कलिका ' है। यह काशी के पंडित पत्रमें पं. विठ्ठलशास्त्री द्वारा संशोधित हो कर भण्णइ एगतेणं अम्हाण कम्मवायो णो इहो। प्रकाशित हुआ है, परंतु इतना अशुद्ध छपा है कि जिससे जो सहाववाओ सुअकेवलिणा जओ भणि॥ एक पृष्ठ भी शुद्ध पढना-समझना कठिन है। आयरिय-सिद्धसेणेण सम्मईए पइटिअ-जसेण । ४ देखो, 'स्याद्वादरत्नाकर' के प्रारंभमें निम्न गत श्लोक दूसमणिसादिवायर-कप्पत्तणओ तदक्षेण ॥ श्रीसिद्धसेन-हरिभंद्रमुखाः प्रसिद्धाडेसनकालेज संग्रहीत हस्तलिखित पु. पृ.१३१. स्ते सूग्यो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः। ३ यह व्याख्या पाटणकी 'हेमचद्राचार्य जनसभा' येषां विनश्य सततं विविधान् निबन्धान की ओरसे छपकर प्रकाशित हुई है। इस व्याख्याके ऊपर शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि मादक। Ahol Shrutgyanam

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