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अंक १]
करते हैं, वे, वे ही हरिभद्र सूरि हैं जिनको लक्ष्य कर प्रस्तुत प्रबन्धके लिखनेका परिश्रम किया गया है । क्यों कि इनके सिवा ' अनेक ग्रन्थोंकी रचना कर समस्त श्रुतका सत्यार्थ प्रकट करनेवाले' दूसरे कोई हरिभद्र जैन साहित्य या जैन इति हासमें उपलब्ध नहीं होते ।
अतः इससे यह अंतिम निर्णय हो जाता है कि महान् तत्त्वज्ञ आचार्य हरिभद्र और कुवलयमाला कथाके कर्ता उद्योतनसूरि ऊर्फ दाक्षिण्यचिन्ह दोनों (कुछ समय तक तो अवश्यही) समकालीन थे। इतनी विशाल ग्रन्थराशि लिखनेवाले महापुरुषकी कमसे कम ६०-७० वर्ष जितनी आयु तो अवश्य होगी । इस कारण से, लगभग ईस्वीकी ८ वीं शताब्दीके प्रथम दशकर्मे हरिभद्रका जन्म और अष्टम दशकमै मृत्यु मान लिया जाय तो वह कोई असंगत नहीं मालूम देता । इस लिये, हम ई. स. ७०० से ७७० (विक्रम संवत् ७५७ से ८२७) तक हरिभद्र सूरिका सत्ता- समय स्थिर करते हैं ।
परिशिष्ट ।
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हरिभद्र सूरिका समय-निर्णय ।
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दार्शनिक विषयोंकी आलोचना करनेवाला 'तत्त्वसंग्रह ' नामक एक प्रौढ ग्रन्थ बनाया है । इस ग्रन्थ पर पञ्जिका नामकी एक टीका भी उन्हींके समकालीन नालन्दा -विद्यापीठके तंत्रशास्त्राध्यापक आचार्य कमलशीलने उसी समय में लिखी है । इस सटीक थका प्राचीन हस्तलेख हमने गुजरातकी पुरातन राजधानी पाटनके प्रसिद्ध जैनपुस्तकभांडागार में देखा है । " प्रस्तुत निबन्ध लिखनेके समय यह ग्रंथ हमारे सम्मुख न होनेसे यह तो हम नहीं कह सकते कि हरिभद्रने जो शान्तिरक्षितका उल्लिखित श्लोकाई उद्धृत किया है वह इसी तत्त्वसंग्रहका है या अन्य किसी दूसरे ग्रन्थका । परन्तु इतना तो हमें विश्वास होता है कि यह श्लोका होना चाहिए इन्हीं शान्तिरक्षितकी किसी कृतिमेका । ऐसी स्थिति में, डॉ. सतीशचन्द्र वि. का लिखा हुआ शान्तिरक्षितका समय यदि ठीक है तो हरिभद्र और शान्तिरक्षित दोनों समकालीन साबित होते हैं ।
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हरिभद्र और शांतिरक्षित । . शास्त्रवार्तासमुच्चयके चतुर्थ स्तबकके निम्न लिखित श्लोक में हरिभद्रने बौद्ध पण्डित शान्तिर क्षितके एक विचारका प्रतिक्षेप किया है । यथाएतेनैतत्प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना । ' नासतो भावकर्तृत्वं तदवस्थान्तरं न सः ॥ इस श्लोक की स्वोपज्ञ टीका में 'सूक्ष्मबुद्धिनाशान्तिरक्षितेन ' ऐसा निर्देश कर स्पष्टरूपसे शान्ति रक्षितका नामोल्लेख किया | डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषणने अपनी ' मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्रका इतिहास' नामक पुस्तक में (पृ. १२४ ) आचार्य शान्ति (न्त ) रक्षितका समय ई. स. ७४९ के आसपास स्थिर किया है । इन शान्तिर क्षितने, हरिभद्रके शास्त्रवार्तासमुच्चयके समान १ देखो, शास्त्रवार्तासमुच्चय, (दे. ला.पु. मुद्रित.) ११४०
कुछ विद्वान् ऐसे समकालीन पुरुषोंको लक्ष्य कर ऐसी शंका किया करते हैं कि-उस पुरातन समयमै आधुनिक कालकी तरह मुद्रायंत्र, समाचारपत्र और रेल्वे आदि अतिशीघ्रगामी वाहतो वगैरह जैसे साधन नहीं थे कि जिनके द्वारा कोई व्यक्ति तथा उसका लेख या विचार तत्काल सार देशमें परिचित हो जाय । उस समय लिये किसी विद्वान्का अथवा उसके बनाये हुए ग्रंथका अन्यान्य विद्वानोंको परिचय मिलने में कुछ न कुछ कालावधि अवश्य अपेक्षित होती थी। इस विचारसे, यदि शान्तिरक्षित उक्तरीत्या ठीक हरिभद्रके समकालीन ही थे तो फिर हरिभद्र द्वारा उनके ग्रंथोक्त विचारोंका प्रतिक्षेप किया जाना कैसे संभव माना जा सकता है ? इस विषय में हमारा अभिप्राय यह है कि यह कोई नियम नहीं है, कि, उस समय में समकालीन विद्वानोंका एक दूसरे संप्रदायवालोंमें तुरन्त परिचय हो ही नहीं सकता था । यह बात अवश्य है कि आजकल जैसे कोई
२ यह ग्रंथ बडौदाराज्यकी ओरसे प्रकाशित होनेवाली संस्कृतग्रन्थमाला में छरनेके लिये तैयार हो रहा है ।
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