Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 238
________________ जैन साहित्य संशोधक ८६ पण एटलं तो स्पष्ट देखाय छे के पाछळना समयमां ए विचार तो खास रूढ बनी गयो हतो के चारे आश्रमनो अधिकारी एक मात्र ब्राह्मण वर्णज होई शके छे. क्षत्रियो माटे त्रण, वैश्यो माटे वे अने शूद्र माटे फक्त एक आश्रमनो अधिकार जणाववामां आव्यो छे' आ घळी हकीकत उपरथी ए विचार तो निश्चित लागे छे, के प्राचीन काळमां पण ब्राह्मणेतर संन्यासिओ, ब्राह्मणसंन्यासिओथी एक जुदाजवर्गना तथा पृथग्भूत मनाता हता. अने तेथी आपणने एम मानवानुं कारण मळे छेके ब्राह्मणेतर संन्यासिओनी आ प्रकारनी अवस्थाने लईने एचा संप्रदायोनो जन्म थयो हतो के जेमणे ब्राह्मणधर्म सामे पोतानो प्रकट विरोध जाहेर कर्यो हतो. आवाज कारणने लईने वेशधारिओ - पाखंडिओ उत्पन्न थया हता एवो भाव वशिष्ठना कथन उपरथी पण तारवी शकाय छे. त्यां एम जणावेलुं छे के केटलाक संन्यासिओए धार्मिक क्रियाओ ( विधिओ ) करवी छोडी दीधी हती अने वळी केटलाके तो आधी पण आगळ वधी वेदमंत्रोच्चारण पण छोडी दीधुं हतुं. आ प्रकारे क्रियामार्गनं उल्लंघन करनाराओने उद्दे शीने वशिष्ठंमां नीचे प्रमाणेनुं कथन करेलुं छे, के 'भले कोई मनुष्य सघळी धार्मिक विधिओनुं अनुठान छोडी दे परंतु वेदमंत्रोच्चारण तो तेणे कदा पि न छोडवं जोईए. कारण के वेदनी उपेक्षा करवाथी शूद्र थवाय छे. तेटला माटे तेणे तेम करधुं नहीं. ' आटला बधा भारपूर्वक करेला प्रतिबंध उपरथी सहज अनुमान थाय छे के आधुं क्रिया खरेखर एक वखते बंध थयुंज हशे. वळी आ उपरथी जो आपणे एटलं अनुमान करी शकता होईए के केला संन्यासिओए आवी ते वेदोच्चारण- वेदाभ्यास करवो पण छोडी दीघो हशे, तो आपणे तेवं अनुमान पण करी शकीर, के बीजाओए, बेदने ईश्वरप्रणीत तथा स्वतः प्रमाणभूत तरीके मानवानो इनकार नुष्ठान १. Maxmuller, 'The Hibbert Lectures, P. 343. २ Chapter X, 1. Bubler's Translation. [ भाग १ पण कर्यो हशे आ विचार उपरथी ए कल्पना सहज करी शकाय तेवी छे के आ मार्ग स्वीकारनार तेज पुरुषो हता जेओ एक प्रकारना पृथग्भूत अने ब्राह्मणेतर संन्यासिओ मनाता हता. आ रीते प्रस्तुत विवेचन उपरथी एक तो आपणे ए बाबत जोई शकीए छीए के जैन अने बौद्ध जेवा विरोधी संप्रदायोना मतभेदनुं बीज चतुर्थ आश्रमनी संस्थामा रहेलुं हतुं. अने बीजं प पण आपणे जोई शकीए छीए के मतान्तर धारिओए चतुर्थ आश्र मनुं अनुसरण कर्यु हतुं. आ उपरथी आपणे मानवं पडे छे के जैनधर्म अने बुद्धधर्म ए ब्राह्मणधर्ममांथी उत्पन्न थपला एक आकस्मिक सुधारा स्वरूप मतो नथी परंतु लांबा वलतथी चालता आवता एक धार्मिक आन्दोलनना क्रमिक परिणाम स्वरूप छे. आपणे उपर जोई गया तेम, जैनोनी तेमना छैला तीर्थकर संबंधी परंपरागत कथाओः अथवा जैन साधुओ माटे विहित करवामां आवेला आचारो; अगर ते धर्मना श्रद्धाळु गृहस्थो माटे योजाएली धार्मिक क्रियाओ उपरथी एवं कांई पण सिद्ध धतुं नथी के जेथी आपणने एम मानवानुं कारण मळे के जैनधर्म ए बौद्धधर्ममांथी निकळ्यो हतो. ए उपरांत बन्ने धर्मोना मुख्य सिद्धान्तो मां पण परस्पर एटलो बधो भेद रहेलो छे के जेथी आ बन्ने धर्मोनुं मूळ उत्पत्ति स्थान एक हशे एम पण मानी शकाय तेम नथी. बुद्धे निर्वाणनी अवस्थाना संबं धमां गमे तेम विचार्य अगर उपदेश्यं होय - अर्थात् ते अवस्थाने या तो सर्वथा अभावात्मक बतावी होय के पछी तेने एक अगम्य अने अचिन्त्य सत्तावाळी कल्पी होय; परंतु एवलुं तो निःसंदेह छे के तेमणे ब्राह्मणधर्मना आत्मवादनो के जे वादमां विश्वदेवतावादिओ तथा अणुवादिओना मत प्रमाणे आत्मा स्वतंत्र अने नित्य मानवामां आव्यो छे तेनो, स्पष्ट विरोध कर्यो हतो. अने ते विरोधज ए बौद्धधर्मनी एक खास विशिष्टता छे. परंतु आ विषयनो ज्यारे जैनोनो सिद्धान्त तपासी छीएतो, ते संपूर्णरीते ब्राह्मणमतने मळतो आवे छे. जे भेद छे ते मात्र एटलोज छे के जैनो ज्यारे आत्माने मर्यादित आकाशव्यापी माने छे; त्यारे सांख्य, न्याय अने वैशेषिक दर्शन जेवा ब्रा Aho! Shrutgyanam

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