Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 230
________________ ७८ वाळाओए तेमनी सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति माटे पसंद कर्यो छे. उदाहरण तरीके, तीर्थकर शब्दनो व्युत्पत्त्यर्थ धर्मनो स्थापनार एटले धर्मप्रवर्तक एवो थाय छे. अने तदनुसार जैन तथा अन्य संप्रदायोए तेज अर्थमां तेनो प्रयोग करेलो छे; परंतु बौद्धोए तेने ते अर्थमां न वापरतां प्रतिस्पर्धी या पाखंडी मतना आचार्यना अर्थमां वापर्यो छे, अने तेम करी तेमणे, जेओ ते शब्द मानसूचक अर्थमां वापरता हता तेना तरफ पोतानो द्वेष व्यक्त कर्यो छे. आवी रीते जा दाखलामां, बुद्ध शब्द सामान्य रीते, मुक्त अर्थात् बंधरहित थपला आत्माना अर्थमां वपराय छे; अने एज अर्थमां जैन ग्रंथोमां ते शब्दनो प्रयोग तो अद्यापि दृष्टिगोचर थाय छे. परंतु बौद्ध ग्रंथोमां ए शब्द खास तेमना धर्मप्रवर्तकना बिरुद रूपे रूढ थपलो छे. आ हकीकत उपरथी ए अनुमान सहज थई शके छे के जे समयमा बौद्धांनी सांप्रदायिक परिभाषा निर्णीत थई ते वखते तेओ प्रकटरूपे जैनोना प्रतिपक्षिओ लेखाता होवा जोईए. आधी उलटं, एटले जैनोए जे वखते पोतानी परिभाषा स्थिर करी ते वखते तेओ बौद्धोना प्रतिपक्षीरूपे प्रसिद्ध नहीं थपला होवा जोईए. जैन साहित्य संशोधक [ भाग १ धर्मप्रवर्तकोने देवरूपे मानता - पूजता होवा जोईए. आथी निश्चितरूपे एम केम कही शकाय के जैनोए पोतानी आ बाबत विषयक आचार-विचारों बौद्धो पासेथीज लीधा हता पण बीजा पाथी नहीं ? आधी विरुद्ध एम तो कहेवाने कारण छे के बुद्धना उपदेशमां एवं कांई पण तत्त्व जोवामां आ वतुं नथी जेथी तेमना अनुयायिओने बुद्धना मंदि रो बांधवा माटे अगर तेमनी मूर्तिओ स्थापित करवा माटे प्रोत्साहन मळी शके तेमना उपदेशोमां एवी तो घणीक बाबतो अवश्य नजरे पडे छे के जे आवा प्रकारनी भक्ति-पूजा-अर्चानी ( अर्थात् मूर्ति पूजानी) पद्धति तरफ विरुद्धता बतावती होय छे. परंतु जैनोना विषयमा आधुं कांई कारण बतावी शकाय तेम नथी. तेओ जो पोताना तीर्थंकर महावीरने देवस्वरूपे पूजे तो तेमां तेओ पोताना सिद्धान्त विरुद्ध वर्तन करे छे, एम कही शकाय तेम नथी. खरी रीते आ विषयमां मारुं पोतानुं स्वतंत्र मानधुं तो एवं छे के असली बौद्धधर्म या जैनधर्मने मूर्तिपूजा साथे कांइ संबंध नहीं होवो जोईए. कारण के मूर्तिपूजानी उत्पत्ति निर्ग्रन्थो द्वारा नहीं पण गृहस्थो द्वारा थएला छे. तेनी उत्पत्तिनुं कारण पण ए लागे छे के ज्यारे भारतना धर्मविषयक विकासक्रममां भक्ति एक मोक्षना मुख्य साधन तरीके मनावा लागी त्यारे लोकोने पोताना प्राचीन अणघड (जंगली) देवी-देवताओनी प्रचलित पूजाथी असंतोष रहेवा लाग्यो अने तेथी तेमणे केटलाक उच्च प्रतिना उपास्योनी पूजा करवानी प्रथा शरु करी. खरी वस्तुस्थिति आवी होवाथी चैत्यस्थापन तथा मूर्ति - पूजामां बौद्धोने पुरोगामी अने जैनोने तेमना अनुकर्ताओ न मानतां मारा विचार प्रमाणे, आ बन्ने वासना शाश्वत अने अनिवार्य प्रभावने * थई संप्रदायोए स्वतंत्र रतेिज हिंदु लोकोना धार्मि आ प्रथा स्वीकारी हती, एम मानवं ए. बुद्धधर्मनी पूर्वकालिकताना पक्षमां, प्रो. लेसन बीजी दलील एरज करे छे के, ए बन्ने धर्मोमां मृत्युशील मनुष्योनी अर्थात् मनुष्यरूप धर्मप्रवर्तकोनी देव तरीके उपासना करवामां आवे छे तथा तेमनी मूर्तिओने मंदिरोमां पूजवामां आवे छे, इत्यादि. बौद्ध अने जैनधर्म सिवाय एवो अन्य कोई पण संप्रदाय के जेनो संस्थापक, महावीर अने बुद्धनी माफक, पाताने सर्वज्ञ अने सर्वथा कृतकृत्य कहेवडावतो हतो, आपणी प्रत्यक्ष जाणमां आवी शके तेला समय सुधी टकी शक्यो नथी. तेथी आबाबतनुं प्रत्यक्ष उदाहरण मळी शके तेम नथी. तो पण, जे बीजा जुना संप्रदायोना विषयमां आपणने जे कांई ज्ञान मळेलं छे ते उपरथी एम अनुमान करी शकाय छे के घणा भागे ते सघळा संप्रदायो, अने तेम नहीं तो छेवटे तेमांना केटलाक तो अवश्यमेव, बौद्धो अने जैनोनी माफक पोताना तीर्थकरो - आ बन्ने संप्रदायो वच्चेनी समानतानी त्रीजी दलील, ए बन्नेमां सरखी रीते मळी आवता अहिंसाना सिद्धान्त विषयनी छे. आ दलीलनी चर्चा आगळ उपर करवामां आवशे तेथी अहीं हुं प्रो. Aho! Shrutgyanam

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