Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 169
________________ अंक 1 जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी ८३ पुत्र थे। इनके बनाये हुए देवागम (आप्तमीमांसा), सा ग्रन्थ है और सुन्दर उपदेशपूर्ण है। पं० आशायुक्त्यनुशासन, बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, जिन शतक धरने इसपर एक संस्कृत निबन्ध लिखा है। और रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ये ग्रन्थ छप चुके हैं। इनके सिवाय कहा जाता है कि इनके बनाये हरिवंशपुराणमें इनके एक 'जीवसिद्धि' नामक हुए और भी कई ग्रन्थ है। सर्वार्थसिद्धिकी भूमिकामें ग्रन्थका उल्लेख मिलता है। पखण्डसूत्रोंके पहले श्रीयुत पं० कलापा निटवेने लिखा है कि चिकित्सापांच खण्डोंपर भी इनकी बनाई हुई ४८ हजार शास्त्रपर भी पूज्यपादस्वामीके दो ग्रन्थ उपलब्ध होते श्लोक प्रमाण संस्कृत टीकाका उल्लेख मिला है। हैं, जिनमेसे एकमे चिकित्साका और दूसरेमे औषधो आवश्यकसूत्रकी मलयगिरिकृत टीकामे ' आद्य- तथा धान्योका गुणनिरूपण है । परन्तु पण्डितश्री स्तुितिकारोऽप्याह ' कहकर इनके स्वयंभू स्तोत्रका महाशयने न तो उक्त अन्धोका नाम ही लिखा है एक पद्य उद्धृत किया है। इससे मालम होता है कि और न यही लिखने की कृपा की है कि वे कहाँ उप ये सिद्धसेनसे भी पहले के ग्रन्थकर्ता है। क्योंकि लब्ध हैं । शुभचन्द्राचार्यकृत ज्ञानार्णवके नीचे सिद्धसेन भी स्तुतिकारके नामसे प्रसिद्ध है। लिखे श्लोकके 'काय' शब्दसे भी यह बात अभी तक इन दोनों ही आचार्योका समय निर्णीत ध्वनित होती है कि पूज्यपादस्वामीका कोई चि. नहीं हुआ है। कित्सा ग्रन्थ है : अपाकुर्वन्ति यद्वाचः क.यवाकचित्तसंभवम् । पूज्यपादके अन्य ग्रन्थ । कलङ्कमगिनां सोय देवनन्दी समस्यते ।। अनेन्द्र के सिवाय पूज्यपादस्वामीके बनाये हप पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्टिट्यूटमें 'पूज्यअबतक केवल तीन ही ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं और पादकृत वैद्यक' नामका एक ग्रन्थ है'। यह आधनिये तीनों ही छप चुके हैं: क कनडीमें लिखा हुआ कनडी भाषाका ग्रन्थ है। १-सर्वार्थसिद्धि । दिगम्बर सम्प्रदायमें आचार्य पर इसमें न तो कहीं पूज्यपादका उल्लेख है ' और न यही मालूम होता है कि यह उनका बना. उमास्वातिकृत तत्वार्थसूत्रकी यह सबसे पहली या हुआ होगा। टीका है । अन्य सब टीकायें इसके बादकी हैं विजयनगरके हरिहरराजाके समयमें एक मंगऔर वे सब इसको आगे रख कर लिखी राज नामका कनडी कवि हुआ है । वि० सं० १४१६ के लगभग उसका अस्तित्व काल है। २-समाधितंत्र । इसमें लगभग १०० श्लोक हैं, स्थावर विषोंकी प्रक्रिया और चिकित्सापर उसइस लिए इसे समाधिशतक भी कहते हैं । अध्या. ने खगेन्द्रमणिदर्पण नामका एक ग्रन्थ लिखा है। स्मका बहुत ही गंभीर और तात्त्विक ग्रन्थ है। इस इसमें वह आपको पूज्यपादका शिष्य बतलाता है पर कई संस्कृत टीकायें लिखी गई हैं। और यह भी लिखता है कि यह ग्रन्थ पूज्यपादके ३-इष्टोपदेश। यह केवल ५९श्लोकप्रमाण छोटा. म. वैद्यक ग्रन्थसे संगृहीत है । इससे मालूम होता है कि पूज्यपाद नामके एक विद्वान् विक्रमकी तेरहवीं १लेखक महाशयके इस कथन में कि.समन्तभद्र सिद्धसेनसे शताब्दिमे भी हो गये हे और लोग भ्रमवश उन्हींभी पहले हुए हैं, कोई प्रमाण नहीं है। हमारे विचारसे के वैद्यक ग्रन्थको जनेन्द्र के कर्ताका ही बनाया हआ सिद्धसेन समन्मभद्र के पुरोगामी है। इस विषय के विशेष समझकर उल्लेख कर दिया करते हैं। विचार जानने के लिये, इस पत्र के प्रथम अंकमें प्रकाशित वृत्तविलास कविकी कनडी धर्मपरीक्षाका जो 'सिद्धसेन दिवाकर और स्वामः समन्तभद्र' शीर्षक हमा- पद्य पहले उद्धृत किया जा चुका है उसमें दो ग्र. रा लेख देखना चाहिए। न्धोंका और भी उल्लेख है, एक पाणिनिव्याकसंपादक-जै. सा. सं. १ नं. १०६६, सन १८८७.९१ की रिपोर्ट । Aho! Shrutgyanam

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