Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 172
________________ जैन साहित्य संशोधक ८६ सिद्ध किया है कि यदि यह व्याकरण भगवत्कृत न हो तो फिर सिद्ध हैम के अमुक सूत्रकी उपपत्ति नहीं बैठ सकती ! - "1 इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । 'सहूबहू चल्यापतोरिर्धाञरुसृजनमेः किलिंद चवत् ङौ सासहिवावाहचा - चालपापति, सखिचक्रेदधिजज्ञिनमीति सिद्ध हैमसूत्रस्याऽन्यथानुपपत्तेः । सर्ववर्मपाणिन्योस्तु 'आहवणोपधालोपिनां किद्वैच १, आगमहनजनः किकिनौ लिट् चेति २ ।” इसके बाद ३-२-२२ सूत्रपर इस प्रकार टिप्प णी दी है " कथं न व्यचः प्राग्भरतेष्यादि । क्षेत्रादिनियापि शिक्षाविशेषाः । कुमारशब्दः प्राच्यानामाश्विनं मासमूचिवान् । तु तंत्रे वाचकं मधुसर्पिषः ॥ इत्याद्यन्यथानुपपत्तेरिति बौटिकतिमिरोपलक्षणम् । इसके बाद ३-४-४२ सूत्र ( स्तेयार्हस्यं ) पर फिर एक टिप्पणी हैं। देखिए - “ इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । अर्हत स्तोन्त च १, सहायाद्वा २, साखे वणिग्द्तःद्यः ३, स्तेनान्नलुकू चे ४, ति सिद्ध हेमसूत्रान्यधानुपपत्तेः । शशिन्यादी स्वाईरेयशब्दं प्रति सूत्राभावात् । कथं सरस्वतीकंठाभरणे तदाप्तिः ? ऐन्द्रानुसारादर्हतशब्दतवेति प । 3+ फिर ३-४-४० सूत्र ( रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य ) पर एक टिप्पणी है । इसमें बौटिकों या दिगम्बरियोंका सत्कार किया गया है । " इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । रात्रेः प्रभाचन्वस्य सूत्रस्य प्रक्षेपता स्फुटत्वात् । अतो बौटिकेतिमिरप लक्षणे देवनन्दिता मोहः प्रक्षेपरजसोरि चेत् । चिराय भवता रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य जीव्यतां ॥ पंचोत्तरः कः स्वानासी: प्रभेदो न यस्य यः (?) । विस्मयो रमयेः शिष्टया स तं चेद्देवनन्दिनमिति ॥ विक्रमादृतुखयुगाब्दे ४०६ देवनन्दी, ततो गुणनंदि-कुमानंदि लोकचंद्रानंतर मुनिरैयुगाब्दे प्रथमः प्रभाचंद्र इति बौटिके । ” १ यह ' बौटिकमततिमिरोपलक्षण नामका कोई ग्रन्थ है और संभवतः इसी वाग्वादिनी कर्ताका बनाया हुआ होगा | इसका पता लगानेकी बड़ी जरूरत है । इससे दि गम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायसम्बधी अनेक बातों प्रकाश पडेगा । पर [ भाग १ इसी तरह ४-३७ ( वेत्तेः सिद्धसेनस्य ) सूत्र पर लिखा है "वेत्तेः सिद्धसेनस्य, चतुष्टयं समंतभद्रस्य प्रक्षेप ऽर्वाच्यता स्फुटत्वात्, रात्रः प्रभाचन्द्रस्य वदिति बौटिकतिमिरोपलक्षणे । अन्त में ५-४-६५ ( शछामि ) सूत्रपर एक टिव्पणी दी है जिसमें पाणिनि आदि वैयाकरणोंकी असर्वज्ञता सिद्ध की गई हैं प्रयोगाशातना माभूदनादिसिद्धा हि प्रयोगाः । ज्ञानिना तु केवलं ते प्रकाश्यते न तु क्रियंत इतेि । अतएव शरछोटीति पाणिनीयसूत्रं वर्गप्रथमेभ्यः शकारः खरयवरपरः शकाः ३छ. कारं नवेति सर्ववर्मकर्तृककालापक सूत्रानुसारि । अतएव पाणिन्यादयोऽसर्वज्ञा इति सिद्धं । अतएव तेषां तत्त्वत आप्तत्वाभा व इति सिद्धिः । नवभ्यः प्रभृतिनिसले निर्जर से मुख्या यदि युकिरते मस्करिणैव भवत्कतमास्तेन तु सारस्वतवाग्देव्या । शरछोटिप्रमुखैः सूत्रे स्वच्छ प्रवृत्ति दादर्शी कालापापजीवी पाणिनिरजिनत्वं प्रति नाव्यक्तः । ” जहां सूत्रपाठ समाप्त होता है, वहां लिखा है :इत्याख्यद्भगवानर्हन्त्वेन्द्र मुदं वहन् । वादिवत्रजचन्द्रः स्वमंदिराभिमुखोऽभवत् ॥ " आगे ग्रन्थ प्रशस्ति देखिए " । नमः ओं नमः सकलकला कौशल पेशलशीलशालिने पा. वय पार्श्वपाश्वीय । स्वस्ति तत्प्रयचनसुधा समुद्रलहर स्निायियो महामुनिभ्यः । परिसमाप्तं च जैनेन्द्र नाम महाव्याकरणं । तदिदं यत्स्वयं श्री वीरप्रभुमै घोने पृच्छते प्रकाशयांचकार । सपादलक्षव्याख्यानकपरमतमदांधकारापहारपरममिति श्रमिचरम्परमेश्वर पादप्रसाद विशदस्याद्वादनय समुपासनगुणकोटिमत्कौटिक गणाविर्भूतचिद्विभूतिः विमलमद चांद्रकुल विपुल बृहत्तपोनिगम निर्गत नागपुरीय स्वच्छ गच्छसमुत्थमुत्पविपार्श्व चंद्रशाखासुखाकृत सुरुतिवर रामेंदूपाध्यायचारुचरणारविंदर जोराजी - मधुकरानुकरवाचकपदवीपवित्रिताक्षयचंद्र वरणेभ्यः सुधी रक्तचंद्रम् | श्रीवारात २२६७ विक्रमनृपात्तु सं. १७९७ फाल्गुनसित्रयोदशी भौमे तक्षकाख्यपुरस्थेने रत्नर्षिणा दर्शनपावित्र्याय लिखितं चिरं नंद्यात् । " ग्रन्थके पहले पत्रकी खाली पीठभर भी कुछ टिप्पणियां हैं और उनमें अधिकांश ही हैं जो उपर दी जा चुकी हैं। शेष इस प्रकार हैं: Aho ! Shrutgyanam

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