Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 199
________________ अंक २ ] शोक समाचार शोक-समाचार | [ १ ] । जैन साहित्य संशोधक के पाठकोंको यह समाचार देते हुए हमें वडा दुःख होता है कि, कलकत्ता नगरके प्रसिद्ध विद्वान् महामहोपाध्याय डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषणजीका गत तारीख २५ अप्रैल को असमयही मैं स्वर्गवास हो गया । विद्याभूषणजी भारतवर्ष के नामी विद्वानों में से एक थे। आप अंग्रेजी भाषाके तो आचार्य (एम् ए) थ ही, साथ में संस्कृत. प्राकृत, पाली, तिब्बती आदि भाषाओंके भी उत्तम ज्ञाता थे । ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धर्मके दर्शन शास्त्रोंमें आपकी उल्लेख योग्य गति थी और पुरातत्त्व शास्त्र के आप अच्छे पण्डित थे । आप स्वभावके बड़े सरल और हृदयसे पूरे निष्पक्षपात थे । ज्ञानार्जन करना ही आपका परम ध्येय था आपका विद्याव्यासंग आश्चर्यजनक था। अंग्रेजीकी एम्. ए. परीक्षाके पास करनेके पहले ही संस्कृत भा पामें आपने इतनी व्युत्पत्ति कर ली थी कि जिससे नवद्वीप - विबुध - जन-सभाने प्रसन्न होकर आपको 'विद्याभूषण' की पद्वी प्रदान की थी। एम्. ए. पास करने के बाद कुछ काल तक आप कृष्णनगर- काले ज संस्कृतके प्रोफेसर रहे। इसी समयके मध्य में आपने काव्य और न्यायशास्त्रका अभ्यास भी आगे बढाया; और साथ में तिब्बती भाषाका ज्ञान भी संपादन किया । आपकी इस योग्यताको देख कर बंगालकी सरकारने आपको तिब्बती भाषका अनुवादक नियत किया और साथमें उसका एक 'शब्दकोष बनानेका काम दिया। यह काम आपने बडी योग्यता के साथ समाप्त किया । इससे सरकारने आपको फिर कलकत्ता-संस्कृतकालेजके अध्यापक के पदपर नियुक्त किया। वहां आपने अध्यापकी करते हुए पाली भाषाके अध्ययनका प्रारंभ किया और सन् १९०१ में उसकी एम्. ए. को परीक्षा देकर उसमें प्रथम श्रेणिम प्रथम नम्बर प्राप्त किया। आपके इन परीक्षा पत्रोंकी जांच करनेवाला उस समय में भारत में वैसा कोई विद्वान् नहीं था इसलिये वे पत्र लन्दनविश्वविद्यालयके ११३ पालीभाषा और बौद्ध साहित्य के प्रधानाध्यापक महाशय राज डेवडके पास भेजे गये थे । इन परीक्षक महाशयने सतीश चन्द्रजीके वे परीक्षापत्र पढकर कलकत्ता युनिवर्सिटी के रजीस्ट्रारको लिदर्जेका है। इसके बाद आपकी वहांसे बदली हुई खाता कि इनका पाली भाषाका ज्ञान सर्वोत्तम और फिर आप प्रेसीडेन्सी कालेज के सिनियर प्रोफेसर बनाये गये । सन् १९०५ में जब बौद्ध तीर्थोंकी यात्रा करनेके लिये घी-सी-लामा हिन्दुस्थान में आये तब भारतसरकारने आपको लामा महोदय के साथ घूम कर उन्हें भारतके बौद्ध तीर्थोंका ऐतिहासिक महत्व समझानेका काम दिया । आपने यह काम इतनी उत्तमताके साथ किया कि जिससे लामा महाशयने खुष होकर, प्रेमोपहारके रूपमें आपको एक रेशमी चादर - जिसे वे लोग खाताग करते हैं—समर्पित की। आपकी इस प्रकारकी सब वि योंमें निपुणता देखकर भारत सरकारने आपको महामहोपाध्यायकी उत्तम पाण्डित्य और सम्मानसूचक पद्वी प्रदान की । " इसी अरसे में आपने 'मिडिवल स्कूल आफ दि इन्डियन लॉजिक' नामक जैन न्याय और बौद्ध न्यायके इतिहास विषयकी प्रसिद्ध पुस्तक लिखी जिसके कारण कलकत्ता युनिवर्सिटीने आपको 'डाक्टर आफ फिलासफी' की प्रधान उपाघिसे सम्मानित किया । सन् १९०९ में, बंगाल सरकारने आपको बौद्ध धर्मका सविशेष प्रत्यक्ष ज्ञान संपादन करने के लिये लंका भेजा । वहां पर, सुमंगल स्थविर - जो लंकाके प्रधान बौद्ध स्थविर और कोलंबोके विद्योदय कालेजके अध्यक्ष थे-के पास उस विषयका तलस्पर्शी ज्ञान संपादन किया। वहांसे फिर आप बनारस पहुंचे और वहां पर न्याय आदि दर्शन शास्त्रों में उत्तीर्णता प्राप्त की । फिर १९१० में आप कलकत्ता संस्कृत कालेजके प्रधानाध्यापक बनाये गये और तबसे आखिर तक आप इसी पद पर प्रतिष्ठित रहे । इसके सिवाय, साहित्य और शिक्षा विषयक अने सभा - सोसाटि Aho! Shrutgyanam

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