________________
जैन साहित्य संशोधक.
[भाग १ आर्ष भाषा हमेशां गंभीर प्रकारनी लेखनशैली अने 'या' सघळा स्वरो पाछळ पण लखेला देखाय माटे खास रीते योग्य मनाती आवी छे. छ. आ बन्ने जातनी जोडणी (वर्णरचना ) घणी ___जैन महाराष्ट्री ज्यारथी पवित्र भाषा तरीके नक्की जुनी तेमज घणी सारी प्रतिओमां नजरे पडे छे. थई, त्यारथी ते धणा वखत सुधी जैनोनी साहि. तेथी आ बेमांथी कयी वधारे शुद्ध छे तेनो निर्णय त्यिक भाषा तरीके चालू रही हती. परंतु पाछळथी करवो अशक्य छे. व्युत्पत्तिशास्त्रनी दृष्टिए 'य' श्रुति तेनुं स्थान संस्कृते लीधुं हतं. पूर्वनी सघळी प्राचीन बधा स्वरो पाछळ आवे ते वधारे स्वरूप-संगत छ. टीकाओ एटले चूर्णिओ अने वृत्तिओ, तथा बीजा कारण के 'य' श्रति ते मात्र लुप्त व्यञ्जननो अवपण घणा स्वतंत्र ग्रंथो प्राकृत भाषामा लखाया हता. शेष छे'. में कल्पसूत्रनी मारी आ आवृत्तिमां एज ई० स० १००० अने ११०० नी मध्यमां जैनोए पद्धति स्वीकारी छे. संस्कृतने पोतानी साहित्यिक भाषा तरीके अंगीकार २) केटलीक प्रतिओमां संयक्त-व्यञ्जनो पहेलांना करी हती. परंतु आ फेरफार काई आकस्मिक के ए अने ओ अनुक्रमे इ अने उ ना रूपमा संपूर्ण रूपे न होता थयो. कारण के, आ समय परिवर्तित थएला जोवाय छ, आनं कारण ए छ पहेलांनां पण भक्तामरस्तोत्र, कल्याणमंदिरस्तोत्र, के देवनागरी लिपिमां ए अने ओ ना हस्वस्वरूपनी शोभनस्तुतयः जेवां जैनग्रंथकारोनां संस्कृत काव्यो, सूचक संज्ञाओनो अभाव छे. अने तेने लईने नीचे मोजुद छे. अने तेमज जिनप्रभमुनिनु (-संवत् प्रमाणेनो गुचवाडो उमो थयोछ. जो ए तथा ओ १३६४ ) पर्युषणाकल्पनियुक्तिव्याख्यान, अने लखवामां आवे तो वर्ण-परिमाणनी उपेक्षा थाय छे. बीजां घणां प्राकृतस्तोत्रो आदि जेवा, बारमी सदी- कारण के संयुक्त व्यञ्जननी पर्वेनो स्वर हव थवो नी पछी पण रचाएला प्राकृत ग्रंथो विद्यमान छे. जोईए, अने ए अने ओ तो दीर्धसंज्ञक स्वरो ___ आ चालु विषय छोडतां पहेलां हुं जैनग्रंथोनी छे. जो आथी उलटी रीते लखवामां आवे अर्थात् शुद्धलेखन विद्या तरफ वाचकानुं ध्यान खेचुं छु. इ तथा उ मकवामां आवे तो ए अने ओ जो के. प्रायः सवे हस्तलिखित प्रतिओ एकज वर्णना स्वरूपनं वास्तविक दर्शन न थई शके. आ ढंगनी जोवामां आवे छ, तथापि निचेनी बाबतोमां कारणथी ज्यां एवा वर्णोना संस्कृत प्रतिरूपो संधिते परस्पर विरुद्ध पडती देखाय छे:
स्वरात्मक होय त्यां में ए अने ओ ज ल१) केटलीक प्रतिओमां 'य-श्रुति 'अ' अने ख्या छे. 'आ' नी पछीज वपराई छे; त्यारे केटलीक प्रति- केटलीक प्रतिओमां न्न अने केटलीक प्रतिओमां 'इ' भने 'ई' 'उ' अने 'ऊ' तथा 'ए। अने
न ओमां ण्ण आवे छे. (जुओ, हेम० १,२२८ )
हो 'ओ' नी पछी पण जोवामां आवे छे. हेमचंद्र पोताना ।
। में आवा दरेक प्रसंगे उत्तम प्रतिओना आधिक्य व्याकरणना १,१८० मां सूत्रमा विधान करें छ र भय राखी सामान्य तेि ते प्रमाणे वर्णके 'य' श्रुति 'अ' अने 'आ' नी पछी आवे छे. पण ..
" प्रयोग स्वीकार्यों छे. टीकामां कहे छ के केटलेक प्रसंगे ते अन्य स्थळे पण जोवामां आवे छे. तेमनो ए नियम अंशतः ४) केटलीक वखते, केटलीक प्रतिओना प्रारंअमारी हस्तलिखित प्रतिओथी सिद्ध थाय छ. १ पश्चिम हिंदुस्थाननी गुफाओमांना प्राकृत शिलालेखोमा कारण के 'य' अने 'या' देरक स्थळे 'अ' ने 'आ' द ना पूर्वेना ज नो आदेश य थएलो छे. उ. त. पवयितिका नी पछीज आवे छे. परंतु घणीक प्रतिओमां 'य' अने पवईतिका प्रवाजितिका.
Aho! Shrutgyanam